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पिछले दरवाजे की प्रोफेसरी!


प्रस्ताव ये है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में ‘विशिष्ट प्रोफेशनल्स और इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स’ को पीएच.डी. उपाधि के बिना ही एसोशिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर नियुक्त किया जा सकेगा। इनके लिए नया पदनाम ‘एसोशिएट प्रोफेसर/प्रोफेसर इन प्रैक्टिस’ भी तय कर दिया गया है। ये सब नई शिक्षा नीति के नाम पर किया जा रहा है।

रिपोर्ट  - à¤¸à¥à¤¶à¥€à¤² उपाध्याय

इन दिनों यूजीसी का नया प्रस्ताव चर्चा में है। प्रस्ताव ये है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में ‘विशिष्ट प्रोफेशनल्स और इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स’ को पीएच.डी. उपाधि के बिना ही एसोशिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर नियुक्त किया जा सकेगा। इनके लिए नया पदनाम ‘एसोशिएट प्रोफेसर/प्रोफेसर इन प्रैक्टिस’ भी तय कर दिया गया है। ये सब नई शिक्षा नीति के नाम पर किया जा रहा है। इस विचार के पीछे का दर्शन बहुत प्रभावशाली लग रहा है कि शिक्षा और उद्योग जगत के बीच की दूरी को खत्म करने के लिए ‘प्रोफेशनल्स और इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स’ को विश्वविद्यालयों के साथ जोड़ा जाएगा। इन लोगों के आने से नई पीढ़ी को उद्योग और व्यवसाय जगत से सीधे तौर पर जुड़ने का मौका मिलेगा। ये भी बताया गया है कि विश्वविद्यालयों में अकादमिक वैविध्य आएगा। लेकिन, क्या ये मामला इतना सीधा और सरल है ? इस सवाल का सही जवाब तलाशने के लिए यूजीसी के मौजूदा और पूर्ववर्ती रेगुलेशनों के प्रावधानों को देखने की जरूरत होगी। पहली बात तो यह तथ्य गलत है कि फिलहाल पीएच.डी. के बिना प्रोफेसर की नियुक्ति नहीं हो सकती। नियुक्ति संबंधी अब तक जितने भी रेगुलेशन आए हैं, उन सब में योग जैसे कई विषयों में ‘एमीनेंट स्कॉलर’ कैटेगरी का प्रावधान पहले से ही रखा गया है। इस श्रेणी में न पीएच.डी. आवश्यक है और न ही कोई अन्य शैक्षिक उपाधि जरूरी है। सीधे तौर पर कहें तो किसी भी विषय के विख्यात व्यक्ति को प्रोफेसर या मानद प्रोफेसर नियुक्ति किया जा सकता। पहले ये प्रावधान सभी विषयों में था, बाद में इसे कुछ ही विषयों तक सिमित कर दिया गया, लेकिन इसमें सबसे बड़ा झोल ये है कि ‘एमीनेंसी‘ यानि विद्वता या प्रख्यात होने का निर्धारण किन मानकों पर किया जाएगा, इस पर यूजीसी खामोश ही रही है। इस कारण ‘एमीनेंट स्कॉलर’ श्रेणी की नियुक्तियां भी सवालों के घेरे में ही रही हैं। यदि, अपने मौजूदा प्रस्ताव के क्रम में यूजीसी किसी राष्ट्रीय स्तर की चयन प्रक्रिया का निर्धारण करती है तो फिर जरूर समझा जा सकता है कि एक गंभीर पहल की जा रही है और इसके जरिये योग्य लोग आएंगे। अब देखना यह होगा कि प्रोफेशनल्स और इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स की एंट्री की राह सुगम करने के लिए यूजीसी ‘एमीनेंसी‘ का स्पष्ट निर्धारण करेगी या इसे पूर्व की भांति गोलमोल रखकर किसी के लिए भी विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में बैक डोर एंट्री का रास्ता खोल देगी! जब पीएच.डी. को हटाकर किसी को भी इन पदों पर लाने की बात कही जाती है तो यकीनन संदेह पैदा होता है। जिन लोगों को इस श्रेणी में नियुक्त करने जा रहे हैं, उनके लिए नियुक्ति से पहले पार्ट-टाइम पीएच.डी. का विकल्प अब भी खुला हुआ है। वैसे, इस वक्त देश में पीएच.डी. उपाधि हासिल करना जितना आसान है उतना आसान पूर्व में कभी नहीं रहा। खासतौर से प्राइवेट विश्वविद्यालयों के मामले में तो यह सच्चाई सभी को पता है। (हालांकि, तब भी पीएच.डी. के नाम पर योग्यता का एक आवरण जरूर है, ये आवरण भी न रहे तो इससे हास्यास्पद कुछ नहीं होगा!) एसोशिएट प्रोफेसर/प्रोफेसर पर नियुक्ति हेतु अनुभव की अनिवार्यता के विकल्प में पहले से ही शोध संस्थानों और उद्योग जगत के अनुभव का मान्य किया हुआ है। इतना सब कुछ होने के बाद यदि इन लोगों की एंट्री संभव नहीं हो पा रही है तो फिर इन्हें उक्त पद थाली में सजाकर परोसना ही बाकी रह जाते हैं।दूसरी बात, इस विरोधाभास को देखिए कि एक तरफ तो सहायक प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए पीएच.डी. को अनिवार्य बनाया जा रहा और दूसरी तरफ एसोशिएट प्रोफेसर/प्रोफेसर के स्तर पर गैर पीएच.डी. को मौका देने की बात कही जा रही है। यदि पीएच.डी. की अनिवार्यता को हटाने से उच्च स्तर पर योग्य लोग मिलने जा रहे हैं तो फिर शुरूआती स्तर पर ही इसे हटा दिया जाए या फिर वैकल्पिक कर दिया जाए। और फिर पीएच.डी. ही क्यों, सभी प्रकार की अकादमिक/शैक्षिक योग्यता की अनिवार्यता को समाप्त कर दीजिए। सभी लोगों को सर्विस सेक्टर और इंडस्ट्री से ही बुलाकर नियुक्ति कर दीजिए। और जब ऐसा होगा, जिसकी पहल होती दिख रही है, तब इसका परिणाम भाषाओं, समाज विज्ञानों, मानविकी विषयों और कला-केंद्रित विषयांे को भुगतना पड़ेगा। तब इनके अध्ययन-अध्यापन के समापन का दौर भी आरंभ होगा। आखिर, इन विषयों में कौन से प्रोफेशनल और इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स आएंगे। ऐसी स्थिति किसी भी लोकतांत्रिक, उदार, चिंतनशील और सभ्य समाज के लिए डरावनी होगी।अब उस मूल बात पर गौर कीजिए, जिसके माध्यम से यह साबित करने की कोशिश की जा रही है मौजूदा शिक्षकों द्वारा विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में जो कुछ पढ़ाया-सिखाया जा रहा है, वह बहुत उपयोगी नहीं है या फिर अपूर्ण है। इसे उपयोगी और पूर्ण बनाने के लिए प्रोफेशनल्स और इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स की जरूरत है। लेकिन, क्या यह इतना आसान है ? नई पहल के संदर्भ में कुछ काल्पनिक उदाहरण देखने चाहिए- क्या किसी बिजली बोर्ड का आईएएस निदेशक वहां के चीफ इंजीनियर से इलेक्ट्रिसिटी फील्ड में ज्यादा योग्य माना जाएगा! क्या किसी सरकारी सेलेक्शन बोर्ड का सदस्य या चेयरमैन सब्जेक्ट एक्सपर्ट भी मान लिया जाएगा! किसी निजी विश्वविद्यालय का पदेन कुलाधिपति अपने यहां नियुक्ति प्रोफेसरों के समान ही योग्य स्वीकार किया जाएगा! राजनीति विज्ञान के किसी प्रोफेसर के स्थान पर किसी विधायक या सांसद को अकादमिक कार्यों के लिए योग्य माना जाएगा! किसी बड़े हॉस्पिटल का संचालन कर रहे व्यक्ति को मेडिकल कॉलेज में प्रोफंसर नियुक्ति किया जा सकेगा! इन्हीं पैमाने पर आप मीडियाकर्मियों को भी रख सकते हैं। क्या पत्रकारिता का कोई मौजूदा प्रोफेसर इसलिए सुपात्र नहीं रहेगा और उसकी जगह पर किसी प्रोफेशनल को रख देेंगे कि संबंधित प्रोफेसर अच्छी न्यूज़ नहीं लिख पाता या अच्छा एंकर/प्रस्तोता नहीं है! यूजीसी के नए प्रस्ताव के लिहाज से तो उस व्यक्ति को भी विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर बना देना चाहिए जो अच्छे जुगाड़ वाहन बना देता है। (स्कूटर के इंजन से ठेला-गाड़ी या ट्रैक्टर के इंजन को ट्रॉली के साथ जोड़कर यात्री-वाहन ऐसे ही जुगाड़-मिस्त्रियों ने बनाए थे। इन लोगों में स्वाभाविक योग्यता तो है ही, लेकिन क्या प्रोफेसर के लिए जरूरी संवाद-कौशल, भविष्य-दृष्टि और विषय की दार्शनिक भाव-भूमि की समझ है!) इस कथित नई पहल के क्रम में एक और बात पर ध्यान देने की जरूरत है, अभी भले ही ये कहा जा रहा है कि प्रोफेशनल्स और इंडस्ट्री एक्सपर्ट्स को एसोशिएट प्रोफेसर/प्रोफेसर नियुक्त किए जाने से मौजूदा पदों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन भविष्य में जरूर पड़ेगा। देर-सवेर मौजूदा पदों पर ही इन लोगों को नियुक्त/समायोजित किया जाने लगेगा। इस तरह की नियुक्तियों के मामले में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को अलग तरह के दबाव का सामना करना पड़ेगा। साथ ही, नियुक्तियों का ‘चोर-दरवाजा’ खुलने का डर भी बढ़ेगा। इसके अलावा नियमित नियुक्तियों के स्थान पर कांट्रैक्ट नियुक्तियांे का दौर और तेज होगा। अभी यह योजना केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए बताई जा रही है, लेकिन अगले चरण में डीम्ड और राज्य विश्वविद्यालयों पर भी लागू होगी ही। देश भर के प्राइवेट विश्वविद्यालय तो पहले से ही इसके लिए तैयार बैठे हैं। उच्च शिक्षा से जुड़े लोग अच्छी तरह जानते हैं कि विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं का काम स्किल्ड-लेबर तैयार करना नहीं है। स्किल्ड-लेबर के लिए देश में पॉलीटेक्निक और आईटीआई जैसी संस्थाएं पहले से ही काम कर रही हैं। उच्च शिक्षण संस्थाएं किसी भी विषय को केवल व्यावहारिक उपयोगिता या बाजार की जरूरत को ध्यान में रखकर नहीं पढ़ाती। वहां इस आदर्श को हमेशा जिंदा रखा जाता है कि वर्तमान की तुलना में भविष्य ज्यादा अच्छा होगा। ये संभव है कि विश्वविद्यालयों में अनेक ऐसे शिक्षक होंगे, जिनका कार्य बाजार और उद्योग के लिए बहुत उपयोगी न हो, लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि कोई भी प्रोफेशनल उनका पर्याय अथवा प्रतिस्थानी नहीं बन सकता। इंडस्ट्री-एकेडमिया के बीच समन्वय की पहल अच्छी बात है, लेकिन कोई प्रोफेशनल या इंडस्ट्री एक्सपर्ट इस आधार पर समकक्ष या श्रेष्ठ नहीं हो जाएगा कि वह किसी खास सर्विस-सेक्टर या इंडस्ट्री में उच्च पदस्थ है।

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