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ये किसकी जमीं है!


अटारी-वाघा बॉर्डर पर सीमा के इस पार और उस पार, दोनों तरफ गेहूं की सुनहरी फसल लहलहा रही है, दोनों ही तरफ फसल काटी जा रही है। अंतर करना मुश्किल है कि कौन-सा पाकिस्तानी गेहूं है और कौन-सा हिंदुस्तानी। लोहे के कंटीले तारों की बाड़ से पता चलता है कि ये हमारा है और वो उनका है। हर शाम होने वाले ध्वज-अवतरण समारोह से भी पता चलता है कि हमारे बीच एक गहरी विभाजक रेखा है। इस तरफ से भी है और उस तरफ से भी है। यहां भी फौजी साजो-सामान सजा हुआ है और वहां भी ऐसा ही हाल है। अविश्वास, नफरत और बंदूकों के साये के बीच हर रोज झंडे आरोहित और अवरोहित हो रहे हैं, होते हैं।

रिपोर्ट  - à¤¸à¥à¤¶à¥€à¤² उपाध्याय

भारत से पाकिस्तान को अलग करती रेखा जितनी जमीन पर खिंची है, उससे कहीं गहरी दिलों में खिंची हुई है। अटारी-वाघा बॉर्डर पर सीमा के इस पार और उस पार, दोनों तरफ गेहूं की सुनहरी फसल लहलहा रही है, दोनों ही तरफ फसल काटी जा रही है। अंतर करना मुश्किल है कि कौन-सा पाकिस्तानी गेहूं है और कौन-सा हिंदुस्तानी। लोहे के कंटीले तारों की बाड़ से पता चलता है कि ये हमारा है और वो उनका है। हर शाम होने वाले ध्वज-अवतरण समारोह से भी पता चलता है कि हमारे बीच एक गहरी विभाजक रेखा है। इस तरफ से भी है और उस तरफ से भी है। यहां भी फौजी साजो-सामान सजा हुआ है और वहां भी ऐसा ही हाल है। अविश्वास, नफरत और बंदूकों के साये के बीच हर रोज झंडे आरोहित और अवरोहित हो रहे हैं, होते हैं। अटारी-वाघा बॉर्डर पर अप्रैल के महीने में 40 डिग्री टेंपरेचर के बीच खुले आसमान के नीचे हजारों लोग मौजूद हैं। पूरा माहौल जय और जिंदाबाद के नारों से लबरेज है। देश भक्ति के गाने माहौल को और गरम बना रहे हैं। एक युवा अर्द्धसैनिक, जो किसी फिल्मी नायक की तरह लग रहा है, परेड स्थल पर हर तरफ घूम-घूमकर लोगों में जोश भर रहा है। उसके दैहिक भाव और संकेत अपनी पूरी ताकत के साथ लोगों तक संप्रेषित हो रहे हैं। भीड़ इस कदर है कि उसके सामने बैठने के इंतजाम छोटे पड़ने लगते हैं। अलबत्ता, वीआईपी श्रेणी में कुछ कुर्सियां खाली हैं। (हालांकि, वीआईपी श्रेणी से भ्रमित होने की जरूरत नहीं है। बस, इतना ही अंतर है कि वीआईपी लोगों के लिए प्लास्टिक/लोहे की कुर्सियां हैं और सामान्य श्रेणी में बैठने की व्यवस्था सीमेंटिड है।) जब तक एंट्री रोक नहीं दी जाती, लोगों की आवाजाही बनी रहती है। वे देश के अलग-अलग हिस्सों से आए हैं। उनकी शक्ल-सूरत, बोली-भाषा और बर्ताव-व्यवहार से आसानी से पता चलता है कि वे किस हिस्से से आए हैं। इन सबमें एक ही बात कॉमन है, वे पाकिस्तान नाम की पहेली को समझना चाहते हैं। गानों का शोर इतना है कि दूसरी तरफ से कुछ भी सुनना मुश्किल है। ‘‘मेरा मुल्क, मेरी शान...’’ पर लोग झूम रहे हैं। संगीत तेज होता जाता है और फिर कॉरीडोर में महिलाएं, लड़कियां नाचने लगती हैं। भारत का झंडा पूरे माहौल को नई रंगत दे रहे है। इस तरफ की भीड़ बार-बार उस तरफ देख रही है, लेकिन वहां लगभग सन्नाटा है। गिनती के लोग मौजूद हैं। कोई भीड़ नहीं है, न कोई विदेशी मेहमान हैं और न ही अफसरों की लाइन दिख रही है। एक गाना पूरा होकर नया गाना बजने के बीच कुछ सेकेंड के स्पेस में सुनाई देता है कि उधर ‘‘पाक जमीं मेरा मुल्क.....’’ बजाया जा रहा है। बीच-बीच में ढोल की आवाज भी सुनाई दे रही है। तीन-चार लोग पाकिस्तान का झंडा लिए हुए इधर से उधर टहल रहे हैं। करीब घंटे भर के नाच-गाने के बाद महिलाएं थक गई हैं। पर, माहौल में थकान नहीं है। उन्हें अपनी सीटों पर जाने के लिए कहा जाता है ताकि बीएसएफ की परेड शुरू हो सके। नारे अब भी गूंज रहे हैं। हर कोई एक-दूसरे से तेज आवाज में नारे लगा रहा है कि कहीं कोई ये न मान ले कि वो कम देशभक्त है। जैसे, नारा ही देशभक्ति का सबसे सशक्त प्रमाण है। अधेड़ उम्र की एक महिला अचानक अपनी सीट पर खड़ी होती है और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने लगती है उसके साथ और भी कई स्वर जुड़ जाते हैं। कुछ ही देर में हिंदुस्तान जिंदाबाद की जगह पाकिस्तान मुर्दाबाद का शोर फैल जाता है। कोल्ड डिंªक, पॉपकोर्न, चॉकलेट्स, चिप्स, तिरंगी कैप और रंगीन छतरियों वाली आजादी अपने मुल्क की बजाय दूसरे मुल्क के मुर्दा होने की कामना से सराबोर होने लगती है। उधर भी यही माहौल होगा, लेकिन वहां की आवाजें बहुत दबी हुई हैं। आखिर, वहां भीड़ क्यों नहीं है! इसका जवाब बराबर में मौजूद युवा सिख सुखदीप सिंह देता है, जो कि अक्सर इस परेड को देखने आता है-सामान्य दिनों में भी पाकिस्तान की तरफ उतनी भीड़ कभी नहीं जुटती जितनी कि हिंदुस्तान की तरफ जुटती है। दूसरी बात, पाकिस्तान में राजनीतिक उठापटक चल रही है इस कारण लोगों की संख्या कम है। एक कारण रमजान भी हो सकता है क्योंकि जिन्होंने रोजे रखे हुए हैं, वे 40 डिग्री टेंपरेचर में जिंदाबाद के नारे लगाने नहीं पहुंचेंगे। सारा मामला सुविधा का है। उन लोगों को सुविधा नहीं है तो नहीं आ रहे हैं, यहां सुविधा है तो लोग खूब आ रहे हैं। देश के हर हिस्से से आ रहे हैं और समवेत स्वर में पाकिस्तान को चुनौती दे रहे हैं। अच्छी बात ये कि परेड को संचालित कर रहा युवा अफसर माहौल को तार्किक बनाने की कोशिश करता है-उसके संबोधन में पाकिस्तान और पाक रेंजर्स के प्रति घृणा का कोई भाव नहीं है, केवल सूचनाएं हैं कि इस तरफ बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स यानि बीएसएफ सीमा को संभालती है और उस तरफ पाक रेंजर्स के पास जिम्मा है। ठीक इसी तरह की सूचना उस तरफ भी प्रसारित होती है। काले कपड़ों में पाक रेंजर्स भी वैसे ही मुस्तैद दिख रहे हैं जैसे कि भारतीय जवान। हालांकि, उनकी वर्दी किसी भी लिहाज से प्रभावपूर्ण नहीं है, वे किसी पंजाबी बैंड पार्टी के कारकून ज्यादा लगते हैं। एक बड़ा अंतर और दिखता है। भारत की तरफ से परेड की शुरुआत महिला अर्द्धसैनिकों द्वारा की जाती है और इसके बाद पुरुष अर्द्धसैनिकों का दल इसे आगे बढ़ाता है, लेकिन पाकिस्तान अभी पीछे है। उस तरफ दूर तक कोई महिला नहीं हैं। कुछ साल पहले पाकिस्तान की तरफ से भी महिला रेंजर्स को आगे लाने की कोशिश हुई थी, लेकिन यह जारी नहीं रह सकी। लोगों में उत्सुकता है कि परेड के बाद उन्हें पाकिस्तान की सीमा के पास जाने दिया जाएगा ताकि वे ज्यादा नजदीक से पाकिस्तानियों को देख सकें, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता। अब कुछ साल पुरानी व्यवस्था को बदल दिया गया है। पहले सीमा के पीलर्स के नजदीक जाकर लोग आपस में बात कर सकते थे, हाथ मिला सकते थे और वहां तक कि एक-दूसरे के फोटों पर भी ले सकते थे। पर, अब परेड के बाद बॉर्डर के पास जाने की अनुमति नहीं है। ये एक बड़ा बदलाव है। अक्सर कहा जाता है कि दोनों देशों के रिश्तों को ‘ट्रिपल-सी’ के जरिये बेहतर किया जा सकता है-क्रिकेट, कल्चर और कॉमर्स। लेकिन, दुखद यह है कि अब अब ये तीनों ही बक्से में बंद हैं। परेड स्थल के शीर्ष पर बापू का फोटो लगा हुआ है। लगभग वैसा, जैसा कि भारत में नोटों पर छपा होता है। बापू पाकिस्तान की ओर मुस्कुराते हुए देख रहे हैं। उनके ठीक सामने पाकिस्तान की तरफ समानांतर स्तर पर मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर मौजूद है। जिन्ना की तस्वीर में उनके चेहरे के तनाव को साफ देखा जा सकता है। ये भी कह सकते हैं कि भारतीय मानस को ये तनाव हमेशा ही दिखता है और यही तनाव पाकिस्तान की बुनियाद भी है। तनाव खत्म हो जाए और बॉर्डर खुल जाएं तो शायद कायदे आजम के चेहरे पर भी मुस्कान आ जाए। कायदे आजम का फोटो वाला पहनावा उनकी विलायती जीवन-शैली से बिल्कुल मेल नहीं खाता। पर, राजनीतिक मजबूरी बहुत बड़ी चीज होती है। परेड से लौटती हुई भीड़ अपने पीछे अब उन स्थानों पर खड़े होकर फोटो खिंचवाने की जुगत में है, जहां उनके पीछे पाकिस्तान का कोई निशान दिखता हो। हर कोई पाकिस्तान के वजूद को उसकी मौजूदगी को नकारते हुए भी उसे अपने साथ लेकर जाना चाहता है। घर का कोई हिस्सा छिन जाए, बंट जाए या बिक जाए तो भी उसकी स्मृति खत्म नहीं होती। भारतीय मानस में यही स्थिति पाकिस्तान को लेकर है। परेड स्थल के बाहर कई तरह के स्टॉल लगे हैं, जहां वो सब कुछ बिक रहा है, जिससे लोग याद रखें कि उन्होंने पाकिस्तान देखा है, भले ही लोहे की कंटीली तार-बाड़ के इस तरफ से देखा हो। बॉर्डर से अमृतसर लौटते हुए पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाकिस्तान का झंडा दिखने लगता है। उसी की सीधी रेखा में भारत का झंडा दिखता है। तिरंगे का आकार और हवा में उसका विस्तार एक अलग तरह की आश्वस्ति देता है। और इस आश्वस्ति के लिए जरूरी नहीं है कि हिंदुस्तान जिंदाबाद के साथ पाकिस्तान मुर्दाबाद भी कहा जाए।

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