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फिर दो साल की पीएच.डी. , एम.फिल क्यों खत्म की ? पता नहीं!


कुछ साल पहले पीएच.डी. उपाधि की अवधि दो साल से बढ़ाकर तीन साल की गई थी। वजह बताई गई थी कि इससे शोध कार्य की गुणवत्ता बढ़ेगी। अब नए रेगुलेशन में इसे फिर घटाया जा रहा है। अब कौन-सी वजह है, इसका पता यूजीसी में बैठे विद्वानों को ही हो सकता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन बदलावों को क्रांतिकारी बताया जाता है, कुछ साल के भीतर ही उन्हें हटा भी दिया जाता है। बेहतर यह होता कि एम.फिल और पीएच.डी. डिग्री को इंटीग्रेटेड तौर पर संचालित किया जाता। इससे तीन साल की अवधि में दो उपाधि प्राप्त होती और कोर्स वर्क को रिपीट करने की जरूरत नहीं पड़ती। इस वक्त जो नियम चल रहे हैं, उनके हिसाब से ज्यादातर विश्वविद्यालय उन शोधार्थियों को भी दोबारा कोर्स वर्क पूरा करने को कहते हैं, जो इस कार्य को एम.फिल डिग्री में कर चुके हैं, जबकि दोनों कोर्स वर्क एक समान हैं।

रिपोर्ट  - à¤¸à¥à¤¶à¥€à¤² उपाध्याय

पीएच.डी. की अवधि फिर दो साल होगी। क्यों होगी, इसकी तह में जाने की जरूरत नहीं है। बस, इसलिए होगी क्योंकि यूजीसी ने तय किया है। इसके बारे में नए रेगुलेशन का ड्राफ्ट जारी कर दिया गया है। इस ड्राफ्ट को नई शिक्षा नीति के अनुरूप तैयार किया हुआ बताया गया है। स्थिति यह है कि नई शिक्षा नीति के नाम पर तमाम ऐसे प्रयोग हो रहे हैं जो या तो पूर्व में करके हटाए जा चुके हैं और फिर वे दुनिया के अन्य बड़े संस्थानों की नकल भर हैं। नई शिक्षा नीति में ऐलान किया गया कि अब एम.फिल नहीं होगी। इस डिग्री की कोई जरूरत नहीं रह गई है। ज्यादा दूर मत जाइये, महज 12 साल पहले एम.फिल डिग्री के आधार पर स्नातक स्तर के कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति की जा रही थी। ऐसा क्या हुआ कि 12 साल में इस डिग्री की हैसियत शून्य हो गई। क्या यूजीसी अथवा अन्य किसी संस्था ने ऐसा कोई शोध किया, जिससे पता चला हो कि एम.फिल डिग्री पूर्णतः निरर्थक है ? ऐसे किसी शोध की जानकारी मेरे पास नहीं है। वैसे, इस बात पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए कि कौन-सी डिग्री शुरू की जा रही है और कौन-सी बंद की गई है। लेकिन मूल बात यह है कि क्या वैसा किए जाने का कोई ठोस और तार्किक आधार मौजूद है ? कुछ साल पहले पीएच.डी. उपाधि की अवधि दो साल से बढ़ाकर तीन साल की गई थी। वजह बताई गई थी कि इससे शोध कार्य की गुणवत्ता बढ़ेगी। अब नए रेगुलेशन में इसे फिर घटाया जा रहा है। अब कौन-सी वजह है, इसका पता यूजीसी में बैठे विद्वानों को ही हो सकता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन बदलावों को क्रांतिकारी बताया जाता है, कुछ साल के भीतर ही उन्हें हटा भी दिया जाता है। बेहतर यह होता कि एम.फिल और पीएच.डी. डिग्री को इंटीग्रेटेड तौर पर संचालित किया जाता। इससे तीन साल की अवधि में दो उपाधि प्राप्त होती और कोर्स वर्क को रिपीट करने की जरूरत नहीं पड़ती। इस वक्त जो नियम चल रहे हैं, उनके हिसाब से ज्यादातर विश्वविद्यालय उन शोधार्थियों को भी दोबारा कोर्स वर्क पूरा करने को कहते हैं, जो इस कार्य को एम.फिल डिग्री में कर चुके हैं, जबकि दोनों कोर्स वर्क एक समान हैं। फिलहाल इतनी ही राहत की बात है कि यूजीसी के प्रस्तावित रेगुलेशन में विश्वविद्यालयों को यह अधिकार दिया गया है कि वे उन युवाओं को कोर्स वर्क से छूट दे सकते हैं जो इसे एम.फिल उपाधि में पूरा कर चुके हैं। पीएच.डी. के मामले में नियमों की उलझन यहीं पर खत्म नहीं होती। यूजीसी कहती है कि शोध उपाधि पूर्णकालिक तौर पर ही जाएगी। फिर सवाल यह है कि जो लोग नेट, सेट या स्लेट के आधार पर असिस्टेंट प्रोफेसर बने हैं, उन्हें पीएच.डी. करने के लिए इतना लंबा अवकाश कौन देगा ? गौरतलब है कि उत्तराखंड समेत कई राज्यों में तीन साल लंबे शोध अवकाश देने की व्यवस्था ही नहीं है। नए ड्राफ्ट में भी अंशकालिक पीएच.डी. उपाधि पर खामोशी छाई हुई है। यानि इस मामले में फिर विश्वविद्यालयों के स्तर पर ऐसे नियम बनेंगे जिनका आधार ढूंढना मुश्किल होगा। यूजीसी के तमाम रेगुलेशनों में ‘क्वालिटी’ शब्द का इतना और इतनी बार इस्तेमाल किया गया है कि ये शब्द अपनी हैसियत ही खो बैठा है। यूजीसी जो भी कुछ करती है, क्वालिटी के नाम पर ही करती है। इसी क्वालिटी के लिए यूजीसी कहती है कि अब केंद्रीय विश्वविद्यालयों में नेट के आधार पर पीएच.डी. में प्रवेश होगा और कुछ सीटें (40 फीसद) शोध उपाधि प्रवेश परीक्षा के माध्यम से भरी जाएंगी। यह परीक्षा राष्ट्रीय स्तर पर भी होगी और संबंधित विश्वविद्यालयों को भी अपनी प्रवेश परीक्षा आयोजित करने का अधिकार होगा। यहीं पर बड़ा झोल पैदा होता है। यदि यूजीसी और वहां बैठे विशेषज्ञ अपने दायित्व के प्रति ईमानदार हैं तो उन्हें हिम्मत करके यह फैसला करना चाहिए कि अब पीएच.डी. में केवल नेट के जरिये ही प्रवेश होगा। ऐसा करने पर यकीनन गुणवत्ता बढ़ेगी। और यह कार्य इसलिए किया जा सकता है कि इस वक्त देश में हर साल यूजीसी, आईसीएआर और सीआईएसआर आदि चार संस्थाएं करीब एक लाख युवाओं को नेट परीक्षा में उत्तीर्ण घोषित करती हैं, जबकि देश के करीब 11 सौ विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. की सालाना सीटें करीब 50 हजार हैं। यानि नेट को अनिवार्य कर दें तो भी पीएच.डी. की सीटें आसानी से भर जाएंगी। लेकिन, ये निर्णय नहीं लिया जाएगा क्योंकि इस निर्णय को लागू करने से प्राइवेट विश्वविद्यालयों का पीएच.डी. कारोबार लगभग खत्म जाएगा। इसलिए पिछले दरवाजे का रास्ता खोलकर रखा गया है। इस वक्त प्राइवेट सेक्टर के अनेक विश्वविद्यालय चार-छह लाख रुपये में आसानी से शोध उपाधि उपलब्ध करा देते हैं। (यहां उन अपवाद श्रेणी में आने वाली प्राइवेट संस्थाओं की बात नहीं की जा रही है।) आखिर, यूजीसी के कर्ताधर्ताओं को इस खरीद-फरोख्त के बारे में पता क्यों नहीं चलता! प्रवेश के लिए नेट की अनिवार्यता लागू हो जाए तो यह खेल खुद ही रुक जाएगा। और इससे नेट की परीक्षा को लेकर युवाओं में थोड़ी और गंभीरता तथा जागरूकता आएगी। पीएच.डी. के मामले में आने वाले समय में एक और समस्या खड़ी होने जा रही है। अब चार वर्ष की स्नातक उपाधि के बाद भी पीएच.डी. में प्रवेश का रास्ता खोला गया है। इसके लिए अलावा एक वर्ष की स्नातकोत्तर उपाधि और दो वर्ष की स्नातकोत्तर उपाधि वाले भी प्रवेश के पात्र होंगे। यानि तीन तरह की उपाधियों के आधार पर प्रवेश होंगे। जब ये लोग पीएच.डी. उपाधि लेकर निकलेंगे तो स्नातकोत्तर कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में किस उपाधि वालों को असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त किया जाएगा ? जिसने चार वर्ष की स्नातक उपाधि के बाद पीएच.डी. हासिल की है, क्या उसे भी स्नातकोत्तर स्तर पर पढ़ाने का हक होगा। ये मुद्दा अभी कोई बड़ा विषय नहीं दिख रहा है, लेकिन कुछ वर्षों बाद इससे परेशानी खडी होगी। इसका अर्थ यह है कि आने वाले दिनों में नियुक्ति संबंधी नियमों में फिर बदलाव होंगे। यूजीसी ने साल 2016 के रेगुलेशन में यह रोक लगाई थी कि कोई भी शिक्षक अपने मूल संस्थान के अलावा किसी दूसरे संस्थान या विश्वविद्यालय में रिसर्च गाइड नहीं बन सकेगा, लेकिन मौजूदा ड्राफ्ट में व्यवस्था की गई है कि यदि कोई दो संस्थाएं आपस में एमओयू कर लेती हैं तो उनके शिक्षक एक-दूसरे के यहां रिसर्च गाइड हो सकेंगे। सामान्य तौर पर देखें तो यह बात इतनी बडी नहीं लगती, लेकिन जब प्राइवेट संस्थाओं के गठजोड़ सामने आते हैं तो पता चलता पीएच.डी. खरीदने-बेचने का एक पूरा कारोबार खड़ा हो गया है और निरंतर विस्तार पा रहा है। इस मामले का मूल बिंदु यही है कि यूजीसी के नियमों और उन्हें जारी करने की प्रक्रिया में न तो सामंजस्य और न ही भविष्य-दृष्टि है। प्रस्तावित रेगुलेशन में दो बातों को लेकर राहत दी गई है-पहली, अब सभी विषयों में यह अनिवार्य नहीं होगा कि थीसिस का मूल्यांकन किसी एक विदेशी विद्वान से भी कराया जाए। इस नियम के कारण भारतीय भाषाओं की थीसिस के मूल्यांकन में समस्या पैदा हो रही थी। दूसरी राहत यह है कि अब विश्वविद्यालयों को थीसिस का मूल्यांकन कई सालों तक लटकाकर रखने की छूट नहीं होगी। थीसिस जमा होने के तीन महीने के भीतर मूल्यांकन प्रक्रिया पूरी करनी होगी। फिलहाल बताया जा रहा है कि नई शिक्षा नीति के दृष्टिगत यूजीसी ने करीब 200 प्रकार के बदलावों की तैयारी कर ली है। इनमें से कुछ बदलाव लागू भी कर दिए गए हैं। पर, सच यही है कि टुकड़ों-टुकड़ों में किए जाने वाले बदलावों से अच्छी तस्वीर बनने की संभावना कम ही है।

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