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बेपनाह उम्मीदें और बूढ़ी आंखों में बेबसी के आँसू


5 फीट से भी कम कद, इतनी पतली काया कि बमुश्किल 30-35 किलो वजन होगा। बरसों पुरानी धोती पहने, उसी का एक टुकड़ा सिर पर बांधे, बगल में एक पुराना थैला, जैसे बरसों की संचित पूंजी हो, लाठी के सहारे यहां से वहां आती-जाती और कभी-कभी एकदम किनारे पर चुपचाप बैठी हुई, जैसे किसी के आने का इंतजार कर रही हो। स्टैंड पर आने वाली हर बस उसके लिए उम्मीद लेकर आती है और खाली होकर नाउम्मीदी दे जाती है।

रिपोर्ट  - à¤¸à¥à¤¶à¥€à¤² उपाध्याय

हरिद्वार बस स्टैंड पर अक्सर एक महिला मिल जाती है। 5 फीट से भी कम कद, इतनी पतली काया कि बमुश्किल 30-35 किलो वजन होगा। बरसों पुरानी धोती पहने, उसी का एक टुकड़ा सिर पर बांधे, बगल में एक पुराना थैला, जैसे बरसों की संचित पूंजी हो, लाठी के सहारे यहां से वहां आती-जाती और कभी-कभी एकदम किनारे पर चुपचाप बैठी हुई, जैसे किसी के आने का इंतजार कर रही हो। स्टैंड पर आने वाली हर बस उसके लिए उम्मीद लेकर आती है और खाली होकर नाउम्मीदी दे जाती है। उम्र का अंदाजा लगाना मुश्किल है। पर, 70-75 साल की तो होंगी ही। मैं बस से उतरा तो अचानक मिल गई। पास आकर बोली कि एक कप चाय पिलवा दे। ये महिला भिखारी नहीं है। मांगती है, लेकिन खाना खाने के लिए। इससे ज्यादा नहीं मांगती। कोई परिवार या कोई बेटा-पोता ही इसे यहां छोड़ कर गया होगा। वह कौन-सा समाज रहा होगा, कौन लोग रहे होंगे जो इतनी बड़ी उम्र की महिला को इस स्थिति में शहर में छोड़कर चले गए होंगे! यह बूढ़ी अम्मा किसी दिन ऐसे ही अपनी यात्रा पूरी कर लेगी और किसी नजदीकी थाने में लावारिस में दर्ज हो कर इसका अंतिम संस्कार भी हो जाएगा। कोई नहीं होगा जो याद करेगा या माँ-दादी को याद करके रो देगा। हरिद्वार शहर में ऐसे एक-दो नहीं, पचासों लोगों को आसानी से देखा जा सकता है। कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज के आश्रम (वे खुद को सतगुरु भी कहते हैं इसलिए महल जैसे भव्य आश्रम में रहते हैं) के कोने पर घाट के बराबर में एक और महिला बैठी रहती है। ये महिला अपने आसपास पुराने कपड़े, बोतले, टूटे-फूटे बर्तन और भी न जाने क्या-क्या इकट्ठा करके रखती है। इस महिला ने इतना पुराना सामान, बल्कि कूड़ा, इकट्ठा किया हुआ है कि अक्सर लोग इसे परेशानी की तरह देखते हैं। इसे कई बार इस जगह से हटाया जा चुका है, लेकिन फिर यह यहीं आकर बैठ जाती है। चाहे बारिश हो, ठंड हो, लू चल रही हो, इसी ठिकाने पर जमी रहती है। कभी लगता है, इसका दिमागी संतुलन ठीक नहीं है, लेकिन कभी-कभी सही जवाब देती है और ये जो कुछ बताती है, वो इतना पीड़ादायक है कि हमें खुद के इंसान होने पर नफरत होगी। नगर निगम के लोग हटाने आते हैं तो महिला कहती है, मैं यहां से नहीं हटूंगी। मेरा बेटा लेने आएगा। अगर मैं यहां नहीं मिली तो वो मुझे कहां ढूंढेगा! फिर वो पूछती है, तुम लोगों को मिला था क्या मेरा बेटा! फिर उसकी आँखों में बेबसी और नाउम्मीदी के मोती चमकने लगते हैं। कोई बेटा तो रहा होगा जो इसे यहां छोड़ कर गया है। जो छोड़कर गया है, वो लेने तो नहीं आएगा। पर, इसे यकीन है कि वो आएगा। ये आज भी उसी समय में अटकी है। मरने तक अटकी रहेगी। वैसी भी, मन को समझाना इतना आसान कहाँ है। रिश्तों और परिवारों के भीतर की इस गंदगी (बूढ़े परिजनों को अनजान जगहों पर छोड़कर गायब होने की सोच ) का एहसास हमें उतनी गंभीरता से नहीं होता, जितना कि होना चाहिए। वजह, अभी तो हम शिवलिंग ढूंढने और मस्जिदों को बचाने की मुहिम पर निकले हुए हैं। बूढ़े मां-बाप का क्या करना, उन्हें तो मरना ही है। हरिद्वार में छोड़कर जाने का भी पुण्य ही मिला होगा शायद ! और भी जितनी कहानियां जोड़ना चाहें, वे हमारे आसपास ही मौजूद हैं। जैसे ही हरिद्वार, ऋषिकेश में पर्यटन सीजन में लोगों की आवाजाही बढ़ती है तो ऐसे अनेक बुजुर्ग यहां दिखने लगते हैं जिनके धूर्त परिजन उन्हें धोखा देकर छोड़ गए हैं। इनमें से ज्यादातर को नहीं पता, वे कहां से आये हैं, उन्हें कहाँ जाना है। अपने बच्चों के नाम तक याद नहीं रहते। बस, इतना ही याद रहता कि बेटा आएगा और वापस ले जाएगा। एक बेहद बुजुर्ग आदमी पुरानी टीशर्ट और बड़ा सा निकर पहने हुए हरिद्वार बस अड्डे पर घूम रहा है। वह कई बसों में चढ़ चुका है और हर एक बस कंडक्टर उसे नीचे उतार देता है। वो सुबह-सुबक कर रोने लगता है। यह सिलसिला कई दिन से चल रहा है। और आगे भी न जाने कितने दिन तक चलेगा। सहज जिज्ञासा भाव से जानने की कोशिश करता हूं कि आखिर हुआ क्या है! इस आदमी को बस इतना ही पता है कि उसे अपने शहर जाना है, बच्चों के पास जाना है, लेकिन वह शहर कौन सा है और वे बच्चे कौन से हैं, इसे याद नहीं है। कुछ कंडक्टर दयालु प्रकृति के हैं, वे इस आदमी के खाने का ध्यान रख रहे हैं। जगह का पता लग जाए तो शायद वे इसे उस शहर तक छोड़ भी देंगे, लेकिन तब तक उस दिन का इंतजार करना होगा जब तक कि ये अपने शहर और घर का सही-सही पता बता सके। जिसकी सम्भावना कम ही है। बीतते वक्त के साथ मौजूदा दिनचर्या ही इस आदमी की नियति बन जाएगी। तब ये आज के जितना बैचेन और बदहवाश नहीं दिखेगा। चुप होकर किसी कोने में बैठा रहेगा। स्मृतियों का बोझ ढोता रहेगा। हर रोज हजारों लोग बसों में सवार होंगे और उतरेंगे। उन्हीं लोगों में ये आदमी किसी अपने को तलाशते हुए एक दिन जिंदगी की जंग हार जाएगा। इन घटनाओं को आप मनुष्य के अनैतिक, स्वार्थी और धूर्त होने के साथ जोड़ कर देख सकते हैं, लेकिन क्या कोई वैकल्पिक समाधान भी है ? है तो, मगर जिन्हें समाधान करना है, उन्हें लगता हर महीने कुछ किलो फ्री राशन से जिंदगी धुंआधार दौड़ने लगती है।

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