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सोऽहँ परमात्मा तो है ही नहीं, विशुद्धतः आत्मा भी नहीं, ये घोर पतनोन्मुखी सहज स्थिति है --सन्त ज्ञ


माघ मेला प्रयाग । सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् के प्लॉट नं 91 सेक्टर नं 2 स्थित पण्डालमें चलरहे सत्संग कार्यक्रम में सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के शीष्य महात्मा दशरथ जी ने कहा।

रिपोर्ट  - à¤‘ल न्यूज़ भारत

दि0 20 जनवरी, माघ मेला प्रयाग । सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद् के प्लॉट नं 91 सेक्टर नं 2 स्थित पण्डालमें चलरहे सत्संग कार्यक्रम में सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस के शीष्य महात्मा दशरथ जी ने कहा, जप-तप-ब्रत-नियम-ध्यान-साधना-पूजा-आराधना-भक्ति-सेवा इसलिये किया जाता है कि जिससे हमारे जीवन का लक्ष्य परमप्रभु प्राप्त हो जाये ताकि हमारा जीवन मुक्ति-अमरता से युक्त भगवदमय हो जाये। जिस साधना से, जिस गुरु से हमारे कल्याण के बजाय पतन-विनाश हो जाये ऐसे साधना और ऐसे गुरु को सर्वथा छोड़ देना चाहिये । उन्होने कहा आजकल ऐसे बहुत गुरुजी लोग मिलते हो जो अपने शिष्य­ को सोऽहँ साधना कराते हो। वे सोऽहँ को ही परमात्मा मानते हो । सन्त ज्ञानेश्वर जी का स्पष्ट कहना है कि ऐसा करके वे गुरु जी लोग अपने शिष्य­ के दुर्लभ व अनमोल मानव जीवन को पतन विनाश में­ धकेल रहे हो । महात्मा जी ने कहा कि सोऽहँ परमात्मा तो है ही नहीं विशुद्धतः आत्मा भी नहीं है । सोऽहँ घोर पतन के तरफ लेजाने वाली श्वाँस और निःश्वाँस के माध्यम से सहज भाव से होते-रहने वाली सहज स्थिति है, आत्मा का क्रमशः जीव-शरीर-संसारमय होते-रहने वाली पतनोन्मुखी स्थिति है यानी विनाश को ले जाने वाली सहज स्थिति है । सोऽहँ तो योग की क्रिया भी नहीं है इसे ही ‘तत्त्वज्ञान’ कह देना तो घोर अज्ञानता की बात है । तत्त्वज्ञान तो वह है जिसमे जीव एवं आत्मा-ईश्वर और परमात्मा-परमेश्वर तीनों का अलग-अलग जानकारी, साक्षात् दर्शन और बात-चीत सहित उनके विराटरूप का भी वास्तविक दर्शन व मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध प्राप्त होता है ।

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