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हरिद्वार ऋषिकेश सहित धूमधाम से मनाया गया श्रावणी उपाकर्म।


हरिद्वार हर की पौड़ी श्रवण नाथ मठ कनखल ऋषिकेश जयराम आश्रम सहित श्रावणी उपाकर्म पूजा पाठ कर ब्राह्मणों ने धूमधाम से मनाई श्रावण मास की पूर्णिमा महत्वपूर्ण होती है। एक ओर जहां इस दिन रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है वहीं दूसरी ओर इस दिन श्रावणी उपाकर्म भी किया जाता है। श्रावणी उपाकर्म: संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है।

रिपोर्ट  - 

हरिद्वार हर की पौड़ी श्रवण नाथ मठ कनखल ऋषिकेश जयराम आश्रम सहित श्रावणी उपाकर्म पूजा पाठ कर ब्राह्मणों ने धूमधाम से मनाई श्रावण मास की पूर्णिमा महत्वपूर्ण होती है। एक ओर जहां इस दिन रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है वहीं दूसरी ओर इस दिन श्रावणी उपाकर्म भी किया जाता है। श्रावणी उपाकर्म: संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। श्रावणी उपाकर्म वैदिक ब्राह्मणों को वर्ष भर में आत्मशुद्धि का अवसर प्रदान करता है। वैदिक परंपरा अनुसार वेदपाठी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा त्योहार है। इस दिन प्रातःकाल में दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने के बाद स्नान करते हैं। फिर कोरे जनेऊ की पूजा करते हैं। जनेऊ के गाठ में ब्रह्म स्थित होते हैं, उनके धागों में सप्तऋषि का वास माना जाता है। ब्रह्म और सप्तऋषि पूजन के बाद गंगा या नदी या सरोवर में खड़े होकर ब्रह्मकर्म श्रावणी संपन्न होती है। पूजा किए गए जनेऊ में से एक जनेऊ पहन लेते हैं और बाकी के जनेऊ रख लेते हैं। पूरे वर्षभर जब भी जनेऊ बदलने की आवश्यकता होती है तो श्रावणी उपाकर्म के पूजन वाले जनेऊ को ही पहनते हैं। सबसे पहले तो आप ये जान लें कि श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है।

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