गुरू जितेंद्र महाराज ने कथक की दरबार शैली के बजाए भक्ति शैली को अपनाया और स्वयं को नृत्य साधना के प्रति समपर्ति कर दिया । और उनकी पहचान कथक के अन्य नृतकों से अलग बनी ष खस्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होनें भक्ति शैली के नृत्य से भगवान की आराधना की । शक्तिपीठों , महाकुंभ शैव और वैष्णनव मंदिरों में अपनी प्रस्तुतियां दीं । भगवान शिव के परम धाम कैलास मानसरोवर में भी अपनी अनन्य शिष्याओं कमलिनी और नलिनी के साथ कैलासपति की नृत्यआराधना की।
रिपोर्ट - allnewsbharat.com
भारतीय शास्त्रीय नृत्य कथक के बनारस घराने के ख्याति प्राप्त कलाकार गुरू जितेंद्र महाराज माहशिवरात्रि के दिन शिवलीन हो गए । ये एक अद्भुत संयोग रहा कि बनारस घराने के मंदिर शैली के जिस नृत्य को उन्होने आजीवन अपनाए रखा पूरी दुनिया में बनारस यानि भगवान शिव की तीन लोक से न्यारी काशी की मंदिर शैली के कथक की प्रस्तुतियां दी और पहचान स्थापित की वही शिव उनके आराध्य थे । भगवान शिव के अन्नय भक्त गुरू जितेंद्र महाराज के लिए कथक नृत्य केवल एक कला या आजिविका का साधन नहीं बल्कि शिवाराधना थी । और शिवोहम शिवोहम करते करते वे शिवलीन हो गए । उनका जाना बनारस मंदिर शैली के कथक नृत्य के लिए एक अपूरणीय क्षति है । जितेद्र महाराज ने अपने कला आश्रम में गुरू शिष्य परंपरा का विर्वाह करते हुए सैंकड़ों शिष्यों को अपनी कला की पूंजी सौंपी । आज देश विदेश में गुरू जी के शिष्य बनारस मंदिर शैली कथक को प्रसिद्धि की नयी उंचाइयों पर ले जा रहे हैं। गुरू जितेंद्र महाराज ने कथक की दरबार शैली के बजाए भक्ति शैली को अपनाया और स्वयं को नृत्य साधना के प्रति समपर्ति कर दिया । और उनकी पहचान कथक के अन्य नृतकों से अलग बनी ष खस्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होनें भक्ति शैली के नृत्य से भगवान की आराधना की । शक्तिपीठों , महाकुंभ शैव और वैष्णनव मंदिरों में अपनी प्रस्तुतियां दीं । भगवान शिव के परम धाम कैलास मानसरोवर में भी अपनी अनन्य शिष्याओं कमलिनी और नलिनी के साथ कैलासपति की नृत्यआराधना की। कमलिनी और नलिनी ने अपने गुरू की राह पर चलते हुए अपनी देश विदेश में पनी पहचान बनायी और भारत सरकार ने दोनों को पद्मश्री उपाधि से सम्मानित किया। देश के सुप्रसिद्ध मंदिरों जहां कभी किसी कलाकार को नृत्य का अवसर नगहीं दिया जाता था वहीं गुरू जितेंद्र महाराज को वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर के सवा पांच सौ साल के इतिहास में पहली बार निमंत्रण मिला और नटवर नागर के सामने पहली बार यदि किसी ने नृत्य आराधना की तो वो थे गुरू जितेंद्र महाराज । इस्कॉन के भारतीय और विदेशों में स्थित मंदिरों में तो उन्होनें अनेक बार प्रस्तुतियां दीं ।यहां तक कि बौद्ध मठों में भी उनको आमंत्रित किया गया दलाई लामा की उपस्थिति में उन्होने भगवान बुद्ध को नृत्यांजलि दी । गुरू जितेंद्र महाराज की देह भले ही पंचत्त्व में और आत्मा भगवान शिव में विलीन हो गयी हो लेकिन वे हमेशा अपनी बनारस मंदिर शैली में जीवित रहेंगें । भारत की प्राचीन गायन वादन नृत्य परंपरा का आरंभ ही भगवान की भक्ति के लिए हुआ था सामवेद इसका सबसे बड़ा प्रमाण है । गुरू जी ने जिस वैदिक परंपरा का आजीवन निर्वहन किया वही परंपरा उनके जाने के बाद भी उनके शिष्यों की कला में जिवित रहेगी । गुरु जी की सबसे अत्यंत निकट रही और जिनके साथ गुरु जी निवास करते थे ऐसी शिष्याओं नलिनी कमलिनी जी ने बढ़े ही भावुक मन से हरिद्वार आकर मां गंगा की आंचल में उनके फूल अर्पित किए। पुरोहित वीरेंद्र कीर्तिपाल ने गंगा के तट पर गुरु का शांति संस्कार करवाया। साथ में हरिद्वार की कला संस्था के संस्थापक अध्यक्ष आशीष कुमार झा भी उपस्थित रहे। आप ने संस्कार के बाद आचार्य बालकृष्ण से भी मुलाकात करी। आचार्य बालकृष्ण ने आप दोनो को सांत्वना देते हुए गुरु जी की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना भी करी।