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भारत के चार धामो में बद्रीनाथ धाम की धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों का महत्व


आज के दौर मे सूचना तकनीक के माध्यम से हम विश्व की किसी भी जगह या उसके महत्व को एक क्लिक से जुटा सकते है। लेकिन आज से कई वर्ष पहले किसी स्थान की जानकारी और महत्त। को कैसे पूरे भारत मे लोगो ने पहुचाया होगा।

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(राजेश भट्ट) देवप्रयाग। आज के दौर मे सूचना तकनीक के माध्यम से हम विश्व की किसी भी जगह या उसके महत्व को एक क्लिक से जुटा सकते है। लेकिन आज से कई वर्ष पहले किसी स्थान की जानकारी और महत्त। को कैसे पूरे भारत मे लोगो ने पहुचाया होगा। भारत के चार धामो में बद्रीनाथ धाम की धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीकों का महत्व विश्व के कोने-कोने तक लोगों को समझाया होगा। इस सम्बंध में बदरीनाथ के तीर्थपुरोहितों के सम्बंध को समझना बेहद जरूरी है।। पंचप्रयागों में प्रथम प्रयाग देवप्रयाग सहित 55 गांवों में बसे पंडा समाज के जुडे हुये है। जो सैकड़ो वर्ष से परम्परागत तरीके से यजमानी करने के लिये देशाटन करने जाते रहे है। देवप्रयाग के पंडे छह महीने बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने व कपाट बंद होने के बाद अपनी यजमान वृति देखने सभी राज्यो में जाकर बदरीनाथ धाम के महत्व को लोगो तक पहुचाते चले आ रहे है। पंडे या तीर्थपुरोहित की यह प्राचीन परंपरा समय के साथ अपडेट होती रही है। पंडों द्वारा पैदल यात्रा के दौरान बदरीनाथ तक यात्रियों को ले जाने का काम किया हुआ है। इन लोगो द्वारा देशाटन के दौरान बदरीनाथ यात्रा का जो संदेश लोगों तक पहुचाया उससे पर्यटन उत्तराखंड को भी आर्थिक मजबूती मिल रही है। बदरीनाथ के पंडों द्वारा की गयी पण्डावृति का आरम्भ सेकड़ो वर्ष पुराना है। सर्व प्रथम दक्षिण भारत से यहां वैष्णव सम्प्रदाय के लोगो अलकनंदा और भागीरथी के संगम देवप्रयाग में आकर बसे थे। क्योंकि यही से गंगा नदी का जन्म हुआ था और रोजमरा के दैवीय पूजा पाठ में इसका सबसे बड़ा महत्व था।वर्तमान में देवप्रयाग पंडो के 55 गांवों है। शुरुवात में यात्री हरिद्वार तक ही आते थे। लेकिन यहाँ के पंडो द्वारा उनको बद्रीनाथ तक पहुचाया गया। उसके बाद ही धीरे धीरे बदरीनाथ यात्रा की परम्परागत स्वरूप लिया।इस प्रकार बदरीनाथ धाम के महात्म्य और वहां के लोकजीवन व लोकसंस्कृति के प्रति देशवासियों में जिज्ञासा पैदा कर पंडों ने धीरे-घीरे तीर्थयात्रा को न सिर्फ राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया, प्रकारांतर से धार्मिक पर्यटन के प्रचार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बद्रीनाथ /देवप्रयाग के पंडो को हर राज्य को बोली भाषा रीतिरिवाजों के साथ वहाँ के पहनावे का भी पूर्ण ज्ञान है। हर पंडा अपने यात्री से उसकी बोली के साथ ही उसका स्वागत बदरीविशाल की जय के साथ करता आ रहा है। वही बदरीनाथ तक यात्रियों को पहचाने के लिए सबसे बड़ा योगदान देवप्रयाग पंडा समाज के ही चंदा प्रसाद कोटियाल का रहा है । जिन्होंने अपने यजमानों से कही झूला पुलों , धर्मशालाओ, अस्पतालों का निर्माण कराया। वही पंडो की बही या पोथी में सबसे पुराना लेखा पृथ्वी सिंह चौहान के वशंजों का है । जब बद्रीनाथ में राजवाड़े ही जाते थे।। करीब 1250 वर्ष पूर्व आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक महाराष्ट्र आदि राज्यो से भगवान राम की तपोस्थली में ये तीर्थपरोहित बसे थे। 22 दिसम्बर 853 का महाराजा प्रतापदहन केतुयर द्वारा अपने ताम्रपत्र में यहाँ के ब्रामणो को ग्राम देने का उल्लेख है। जो आज भी बद्रीनाथ मन्दिर में विराजमान है। ये जानकारी पूर्व राज्यमंत्री और बदरीं केदार मन्दिर समिति पूर्व अध्यक्ष मनोहरकान्त ध्यानी ने एक लेख में भी दी।वहीतीर्थ यात्रियों की पहली सनद में लिखे यजमान के तीर्थपुरोहितोंब के वंशजो की पैतृक सम्पति होने के अभिलेख ताम्र पत्र का प्रमाण सन 1243 के है इस ताम्रपत्र में नीमराणा अलवर का चौहान पृथ्वी सिंह के वश के वर्तमान जनक सिंह है। इनके पंडा पुरोहित तैलंग कोटेकर के वंशज प.रामनाथ स्वासेरिया का नमोलेख है। आज भी पंडो या तीर्थपुरोहितों को के पास ऐसी कही सनदे है जो उस दौरान कही राजाओं द्वारा अपने तीर्थ पुरोहितों को दी गयी थी। उसके बाद जब कोई यजमान उस इलाके से बद्रीनाथ पहुचता था। तो तीर्थपुरोहित उस यजमान का पूरा परिचय अपने बही में दर्ज करते थे। जो परम्परा आज भी बदस्तूर जारी है। वही प्रधामनंत्री जब इस वर्ष बद्रीनाथ पहुचे तो उन्होंने भी अपने तीर्थपुरोहित सुनील पालीवाल की बही में अपना नामदर्ज कराने के बाद बही को डिजिटिलाइंस करने को कहा था।

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