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चालाक चीन - मासूम भारत


गलवान घाटी मैं चल रहे हैं घटनाक्रम में जिस तरह से भारत और चीन दोनों देशों के जवान एक दूसरे से लड़ रहे हैं, और अब बात मरने मारने तक उतर आई है, जहां भारत के कुछ सैनिक इस हिंसक झड़प में मारे गए, वही चीन के भी कई सैनिक मारे गए और घायल हुए, इसके बाद भारत में चीन के विरोध में लगातार स्वर बुलंद हो रहे हैं ।

रिपोर्ट  - à¤¸à¤šà¤¿à¤¨ तिवारी

गलवान घाटी मैं चल रहे हैं घटनाक्रम में जिस तरह से भारत और चीन दोनों देशों के जवान एक दूसरे से लड़ रहे हैं, और अब बात मरने मारने तक उतर आई है, जहां भारत के कुछ सैनिक इस हिंसक झड़प में मारे गए, वही चीन के भी कई सैनिक मारे गए और घायल हुए, इसके बाद भारत में चीन के विरोध में लगातार स्वर बुलंद हो रहे हैं । यह पहली बार नहीं है जब भारत में चाइना के खिलाफ लोगों ने आवाज उठाई है ।मई 1998 में तत्कालीन एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री की हैसियत से समाजवादी नेता जार्ज फर्नाडिस ने जब भारत को चीन को दुश्मन नंबर वन बताया था तब उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक भौं सिकोडी थी, आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी को भी तथा यहां तक की उसके अपने संगठन स्वयंसेवक संघ को भी जॉर्ज का बयान नागवार गुजरा था, वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से जार्ज की यह साफगोई नहीं सुहा सकती थी सो नहीं सुहाई, यह दिलचस्प था कि संघ और वामपंथी रूप में दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाली ताकते इस मुद्दे पर एक सुर में बोल रही थी, ठीक वैसे ही जैसे दोनों ने अलग-अलग कारणों से 1942 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था, जार्ज के इस बयान के विरोध के पीछे भी दोनों की प्रेरणा अलग अलग थी संघ के सामने सबसे बड़ी बात जो थी वह उसका मुस्लिम विरोधी होना थी, इसलिए संघ हमेशा से पाकिस्तान को ही दुश्मन नंबर वन मानता आया है। और वामपंथी दल चीन के साथ वैचारिक रिश्तो की वजह से जॉर्ज के बयान को खारिज कर रहे थे। वही मीडिया में भी जॉर्ज के इस बयान को काफी लानत भरी दृष्टि से देखा गया था, अब जिस तरह से ताजा घटनाक्रम हो रहा है उसको देखते हुए जॉर्ज फर्नांडिस का वह बयान सच होता दिख रहा है। वैसे तो चीन का खतरा भारत के लिए नया नहीं है और ना ही जॉर्ज वह पहले नेता थे जिन्होंने चीन को दुश्मन नंबर वन बताया था । चीन ने जब तिब्बत पर आक्रमण कर उस पर कब्जा किया था, तब से ही वह भारत के लिए दुश्मन नंबर वन बन गया था, देश को चीन के खतरे से जताने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया भी थे, उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वह तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता ना दें, लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने के बजाय चीनी नेता चाउ एन लाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देरी नहीं की । उस समय भारत को आजाद हुए महज 11 वर्ष ही हुए थे नेहरू तब समाजवादी भारत का सपना देख रहे थे जिसमें चीन से युद्ध करने की कोई जगह नहीं थी। उधर चाउ अपने आपको स्टालिन से भी आगे साबित करने में लगे थे ,हालांकि तब दलाई लामा ल्हासा में रहते थे और उनकी हैसियत सिर्फ एक धर्मगुरु की रह गई थी । इतना सब होने के बावजूद लगभग एक दशक तक भारत चीन के बीच राजनयिक संबंध बहुत अच्छे रहे, वहां के कई राजनेता भारत की यात्रा पर आए और भारत के राजनेता चीन की यात्रा पर गए लेकिन चीनी नेतृत्व हमेशा से ही विस्तार वादी नीतियों में चलता रहा है ,और उसी का परिणाम है जो आज भारत सहित कई देश भुगत रहे हैं। चीन लगातार भूटान ताइवान व भारत के हिस्सों को अपना बताता आया है, पंडित नेहरू ने हिंदी चीनी भाई भाई का नारा लगाकर चीन के विरोध को एकदम से खत्म कर दिया था मगर 1962 का अक्टूबर महीना भारतीय नेतृत्व के भाउक सपनों के ध्वस्त होने का था, जब चीन ने अपनी पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया था, तब हमारी सेना के पास सैन्य साजो सामान का बहुत कम था , नतीजे के स्वरूप में भारत को पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा , और चीन ने हमारी हजारों वर्ग मील जमीन हथिया ली थी। इस तरह लोहिया के द्वारा जताई गई आशंका भी सही साबित हुई थी चीन से मिल रहे हैं गहरे जख्मों के बाद भी भारत चीन के साथ हमेशा शांति बनाए रखना चाहता था, और आजतक उसी नीति पर कायम है , जिसका नतीजा आज भारत को भुगतना पड़ रहा है। अब जबकि भारत में चीन के विरोध में स्वर बुलंद हो रहे हैं और चीनी सामान के बहिष्कार की बात हो रही है, तब भारत सरकार के ढीला रवैया भी सामने आ रहा है जहां एक तरफ पूरे देश में चीन के खिलाफ रोष है वहीं दूसरी तरफ सरकार चीनी कंपनियों को ठेके पर ठेके दिए जा रही है । अगर व्यापार की बात की जाए तो पिछले 15 सालों के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार में भी 24 गुना इजाफा हुआ है चीन की कई नामी कंपनियां भारत में कारोबार कर रही हैं, भारतीय कारोबारी भी चीन पहुंच रहे हैं, और भारत में चीन के सामानों के बहिष्कार की बात हो रही है, और उधर भारतीय मीडिया और चीनी मीडिया दोनों भारत और चीन के बीच युद्ध की भविष्यवाणी तक कर रहे हैं, चीनी मीडिया में भारत को अमेरिका के इशारे पर काम करने वाला एक मानसिक गुलाम देश बताया जा रहा है, चीन की मीडिया पर चीनी सरकार का नियंत्रण है और उसमें वही छापा और दिखाया जाता है जो सरकार चाहती है चीन से इस तनातनी की कुछ वजह कूटनीतिक भी हैं, दरअसल चीन अपने को विश्व की एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करने की कवायद में जुटा हुआ है, अपने पड़ोस में उसके रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट उसे भारत ही नजर आता है , भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपने हितों के हिसाब से दूसरे देशों से व्यापारिक और सामरिक संबंध स्थापित किया है, चीन इसे अपने लिए चुनौती मानता है उसे डर है कि भारत के जरिए पश्चिमी देश उसे घेरने की कोशिश कर रहे हैं । इसलिए उसने हमारे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ कई कदम उठाए हैं पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुटों के सरगनाओं को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने की भारतीय कोशिशों को भी उसने कई बार संयुक्त राष्ट्र में वीटो का इस्तेमाल करके नाकाम किया है। चीन पाकिस्तान इकोनामिक कॉरिडोर को लेकर भी भारत से चीन के रिश्ते सहज नहीं है । सच यह है कि भारत अब 1962 वाला भारत नहीं है लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि चीन की सैनिक ताकत हम से कहीं ज्यादा है, उसने सीमाओं तक सड़कों का जाल बिछा दिया है, चीन का ऐसा रिश्ता सिर्फ भारत के साथ ही नहीं उसके अपने पड़ोसी देश जापान और वियतनाम से भी है ,उन देशों से भी उसकी तू तू मैं मैं होती रहती है, हिंद महासागर में वह अपना दखल बढ़ाने की कोशिश कर रहा है ,तो दक्षिण चीन सागर में उसे चुनौती मिल रही है । कई मोर्चों पर फंसा चीन ऐसे में भारत से युद्ध करेगा ऐसा नहीं लगता जो भी हो पर यह तर्क भी नहीं भूला जा सकता कि चीन आक्रमणकारी है ।

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