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गु0कां0वि0, योग विभाग द्वारा ‘समत्वं योग उच्यते’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन।


गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के योग विज्ञान विभाग द्वारा ‘समत्वं योग उच्यते’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपसचिव प्रो0 दिनेशचन्द्र भट्ट ने वेबिनार में योग विज्ञान विभाग के प्रो0 ईश्वर भारद्वाज योग को गुरुकुल में सर्वप्रथम स्थापित किया तथा योग को देश-विदेश में प्रचार-प्रसार किया।

रिपोर्ट  - ALL NEWS BHARAT

गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के योग विज्ञान विभाग द्वारा ‘समत्वं योग उच्यते’ विषय पर दो दिवसीय राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपसचिव प्रो0 दिनेशचन्द्र भट्ट ने वेबिनार में योग विज्ञान विभाग के प्रो0 ईश्वर भारद्वाज योग को गुरुकुल में सर्वप्रथम स्थापित किया तथा योग को देश-विदेश में प्रचार-प्रसार किया। शुभ कर्मों में कुशलता ही योग है अर्थात् शुभ कर्मों को कुशलतापूर्वक करना ही योग है। इस अर्थ में 'योग' शब्द से मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक समन्वयन एवं तादात्म्य अभिप्रेत है। यानि मन, बुद्धि एवं शरीर इन तीनों को एक साथ जोड़कर जब हम कोई कार्य करते हैं तो निश्चित ही उस कार्य में कुशलता या संपूर्ण दक्षता प्राप्त होती है, जिसे योग कहते हैं। व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में, यह अर्थ सटीक है एवं सफलता के सूत्र-रूप में स्वीकार्य है। आधिदैविक या अलौकिक परिप्रेक्ष्य में इसका भावार्थ यह है कि यदि कुशलतापूर्वक अर्थात् मन, बुद्धि एवं क्रिया तीनों के ही संयोग से यदि जप-तपादि अनुष्ठान किया जाए तो निश्चित ही अभीष्ट से योग होता है। इण्टरनेशनल महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वृन्दा के कुलपति प्रो0 रजनीश शुक्ला ने कहा कि गीता में 'योग' शब्द के तीन अर्थ हैं 1. समता जैसे समत्वं योग उच्यते’ (२/४८); २. सामर्थ्य, ऐश्वर्य या प्रभाव; जैसे – ‘पश्य मे योगमैश्वर्यम्’ (९/५); और ३ समाधि; जैसे – ‘यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया’ (६/२०)। यद्यपि गीता में ‘योग’ का अर्थ मुख्य रूप से समता ही है तथापि ‘योग’ शब्द के अंतर्गत तीनों ही अर्थ स्वीकार्य हैं। लाल बहादुर शास्त्री नेशनल संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के प्रो0 महेश प्रसाद सिलोड़ी ने कहा कि “योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते”।। अर्थात हे धनञ्जय! तुम योग में स्थित होकर शास्त्रोक्त कर्म करते जाओ। केवल कर्म में आसक्ति का त्याग कर दो और कर्म सिद्ध हो या असिद्ध अर्थात् उसका फल मिले या फिर न मिले, इन दोनों ही अवस्थाओं में अपनी चित्तवृत्ति को समान रखो। अर्थात् सिद्ध होने पर हर्ष एवं असिद्ध होने पर विषाद अपने चित्त में मत आने दो। यह सिद्धि एवं असिद्धि में सम-वृत्ति रखना ही योग है । योग विज्ञान विभाग के प्रो0 ईश्वर भारद्वाज ने कहा कि 'योग' शब्द कर्मयोग का ही बोधक है। यहाँ न केवल कर्म के स्वर्गादि फलों के छोड़ने की बात कही गयी है अपितु प्रातिस्विक फल की आशा छोड़कर कर्म करने से जो चित्त-शुद्धि या भगवत्प्रसाद आदि फल प्राप्त होते हैंए उनकी सिद्धि-असिद्धि में भी सामान भाव रखने की बात कही गयी है अर्थात् यह विचार मत करो कि इतने दिन मुझे कर्मयोग में लग गए अभी तक मेरी चित्त-शुद्धि कुछ नहीं हुई या भगवत्प्रसाद के कुछ लक्षण मुझे दिखाई नहीं दिए। तुम तो केवल कर्त्तव्य समझकर कर्म करते जाओए इस कर्म का फल क्या हो रहा है इस ओर कोई दृष्टि ही न दो। इसी का नाम योग या कर्मयोग है। इस श्लोक की व्याख्या में कई विद्वानों ने योग का अर्थ परमात्मा से सम्बन्ध माना है यानी परमात्मा से सम्बन्ध रखते हुए कर्म करो अर्थात जो कुछ करो वह परमात्मा को प्रसन्न करने के ही उद्देश्य से करो और कर्मों को परमात्मा को ही अर्पण कर दिया करो। योग विज्ञान विभाग के विभागध्यक्ष ने सभी महानुभावों का स्वागत कर आभार व्यक्त किया। डा0 सुरेन्द्र कुमार त्यागी ने सभी आगन्तुकों का परिचय कराया। डा0 ऊधम सिंह ने वेबिनार का संचालन किया। इस अवसर पर डॉ सुयश भारद्वाज, पवन, हेमंत सिंह नेगी सहित 400 प्रतिभागियों ने भाग लिया।

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