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प्रकृति के पोषण का प्रतिबिम्ब -उत्तराखंड की समृद्ध लोक परंपरा “हरेला “को समर्पित


भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि इसमें जीवन के जिन कर्त्तव्यों अथवा मूल्यों को प्रकृति के संरक्षण व संवर्धन के लिये श्रेष्ठ और आवश्यक जाना गया है।

रिपोर्ट  - à¤à¤®0 पी0 डोभाल

भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि इसमें जीवन के जिन कर्त्तव्यों अथवा मूल्यों को प्रकृति के संरक्षण व संवर्धन के लिये श्रेष्ठ और आवश्यक जाना गया है, उन्हें धार्मिकता और पुण्यलाभ के साथ जोड़ दिया गया है, जिससे व्यक्ति उनका पालन व अनुकरण अनिवार्य रूप से करे । प्राकृतिक संसाधनो से सामीप्य व सूझबूझ के साथ सामंजस्य की पाठशाला उत्तराखंड की ऐसी ही एक दूरदर्शिता से परिपूर्ण परम्परा है जिसे "हरेला" के नाम से जाना जाता है .. प्राकृतिक रूप से धरा को , herb, shurb , bush और trees के रोपण के द्वारा हरियाली से परिपूर्ण करने का हर छोटा व बड़ा प्रयास ही *हरेला* कहलाता है। सामान्यतया "हरेला" वर्ष भर में तीन अलग- अलग अवसरों पर मनाया जाता है । प्रथम चरण में चैत्र मास के अवसर पर। द्वितीय चरण में सावन मास के अवसर पर व तृतीय चरण में अश्विन मास के दौरान हरेला का पर्व मनाया जीता है। सावन मास के दौरान मनाया जाने वाला "हरेला" इसलिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय वर्षा ऋतु के दौरान लगाए जाने वाली पौध बिना अधिक देखभाल के कम समय में व सहजता से ही प्रकृति के बीच अपना अस्तित्व बनाने में सफल हो जाती है । विभिन्न अवसरों सहित हरेला के पर्व पर रोपित किए जाने वाले वृक्षों की महत्ता को मत्स्यपुराण में लिखी इस बात से समझा जा सकता है जिसमें लिखा गया है कि- दशकूप समावापी दशवापी समोहदः,दशहद समः पुत्र दश पुत्र समोदयः " अर्थात- लोक कल्याण की दृष्टि से दस कुओं के समान एक बावड़ी , दस बावडियों के समान एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र और दस पुत्रों के समान एक वृक्ष का महत्व है। वृक्ष को पुत्र के समान महत्व देते हुये कहा गया है कि- एक व्यक्ति के द्वारा पालित वृक्ष वही कार्य करता है जो एक पुत्र करता है । वह अपने पुष्पों से देवों को प्रसन्न करता है, छाया से यात्रियों को सुख पहुँचाता है और अपने फलों से मनुष्यों को संतुष्ट करता है। वृक्ष का रोपण करने वाला दु:ख से परे होता है । इस सनातन सोच के विपरीत आज के उपभोक्तावादी समाज में मनुष्य यह समझने लगा है कि समस्त प्राकृतिक संपदा पर सिर्फ और सिर्फ़ उसी का आधिपत्य है। वह जैसा चाहें, इसका दोहन करें। इसी भोगवादी प्रवृति के कारण हमने प्रकृति का इस सीमा तक शोषण कर लिया कि अब हमारा स्वयं अपना ही अस्तित्व संकट में पड़ने लगा है। हमें समझना होगा कि प्रकृति, पर्यावरण और पारिस्थितिकी की रक्षा किये बिना हमारा कोई अस्तित्व ही नही रहेगा । इसीलिये हम सबको उत्तराखंड की इन समृद्ध लोक परम्पराओं से सीख लेते हुये वृक्ष रोपण के अभियान को उच्चतम स्तर पर ले जाना होगा। इस अवसर पर कई व्यक्तियों के अनुभवों के आधार पर मैं एक बात बड़ी गंभीरता से कहना चाहता हूँ कि वृक्षरोपण करते समय वैज्ञानिक तथ्य , पुरातन ज्ञान एवं उस क्षेत्र की पार्रिस्थितिकी संतुलन में सहायक कारकों का आवश्यक रूप से ध्यान रखा जाना नितान्त आवश्यक है । हमने देखा है कि बिना गम्भीर अध्ययन के ही पहाड़ों में चीड़ के वृक्षों का जिस स्तर पर रोपण किया गया उससे आज अनेकों कठिनाइयां पैदा हो रही हैं। धरती में वृक्ष रोपण करने से पहले हमें अपने मनोमस्तिष्क में समावेशी , सर्व कल्याण रूपी भावना का प्रस्फुटन करना होगा ..सिर्फ़ हरे के लिये ही वृक्ष रोपण सही सोच नहीं है क्योकिं इससे कुछ अवसरों पर लाभ की जगह हानि की ही संभावना अधिक होगी . इसीलिये वृक्ष रोपण करते समय पुरातन ज्ञान व सर्व कल्याण की भावना के अनुरूप सघन छायादार, वर्षभर हरियाली युक्त, औषधीय , बहु उपयोगी तथा फलदार वृक्षों का अधिकाधिक रोपण करें । आइए हम सब इस संकल्प में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें . व अपने-अपने तरीके से हरेला पर्व मनायें

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