उत्तराखंड देवभूमि है और देवी-देवताओं से सम्बन्धित मान्यतायें , परम्परायें , मेले, यात्रायें आदि यहाँ की समन्वयकारी संस्कृति । यह संस्कृति हमारे रक्त में रची -बसी है।आज हम आपको चण्डिका माँ के विषय में बता रहे हैं।
रिपोर्ट - Uma Ghildiyal
उत्तराखंड देवभूमि है और देवी-देवताओं से सम्बन्धित मान्यतायें , परम्परायें , मेले, यात्रायें आदि यहाँ की समन्वयकारी संस्कृति । यह संस्कृति हमारे रक्त में रची -बसी है।आज हम आपको चण्डिका माँ के विषय में बता रहे हैं। ग्यारह सितम्बर भाद्रपद अष्टमी को हमने नन्दा माता को उसकी ससुराल विदा किया और इसी अष्टमी को पिण्डर के किनारे स्थित सिमली से माँ चण्डिका भ्रमण पर निकल गयी हैं। माँ चण्डिका माँ पार्वती का काली रूप हैं। काली ने जब चण्ड-मुण्ड का संहार किया तो उन्हें देवी ने चण्डिका नाम प्रदान किया। माँ चण्डिका का पहला पड़ाव रतूड़ा गांव में होगा। यह यात्रा चौदह वर्षों बाद शुरू हो रही है। चौदह वर्ष बाद सभी देवी देवताओं का सम्मेलन होगा। सिमली का मन्दिर जो पिण्डर के किनारे है, माँ काली को समर्पित है। कहते हैं कि सर्वप्रथम रतुड़ा वालों को माँ की मूर्ति मिली थी, परन्तु उन्होंने उसे स्थापित न करके नदी में ही विसर्जित कर दिया। मूर्ति सिमली पहुँची और सिमली वालों ने भक्ति भाव से मूर्ति को स्थापित किया। स्थापना के कई सालों बाद देवी ने भ्रमण की इच्छा बताई। पैता रखा गया फिर द्योरा की यात्रा शुरु हुई। इस पूरी यात्रा को वन्याथ कहा जाता है। देवी क्रोध में पहले रतूड़ा जाती है। पश्चाताप से भरे रतूडा के लोग देवी की खूब आवभगत करते हैं। उन्हें आशीर्वाद देकर देवी बसक्वाली, सेनू, सुन्दरगाँव, कोली, पुडाली और गैरोली जाती है। इसके अलावा देवी रुद्रप्रयाग, पौड़ी, उत्तरकाशी और टिहरी भी जाती है। भ्रमण का कार्यक्रम दस माह तक चलता है। प्रतीक्षा कीजिये, क्या पता आप तक भी माँ पहुँचे। नहीं तो आप ही आ जाइयेगा। माता के भ्रमण का यह शताब्दी वर्ष भी है।