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वैदिक गुरुकुलम् में हर्षोल्लास से मनाया गया रक्षा बंधन पर्व (श्रावणी उपाकर्म)


लाखों-करोड़ों बहनों की श्रद्धा, आस्था व विश्वास के केन्द्र, मातृशक्ति को गौरव प्रदान करने वाली गुरुसत्ता के रूप में स्वामी रामदेव तथा आचार्य बालकृष्ण के आशीर्वाद से पतंजलि योगपीठ स्थित वैदिक गुरुकुलम् प्रांगण में रक्षा बंधन पर्व (श्रावणी उपाकर्म) हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। कार्यक्रम में बहनों ने गुरुसत्ता को रक्षासूत्र बांधकर आशीर्वाद प्राप्त किया। गुरुसत्ता ने राष्ट्रसेवा में अहर्निश संलग्न सभी माताओं व बहनों को रक्षाबंधन पर्व की शुभकामनाएँ प्रेषित की।

रिपोर्ट  - allnewsbharat.com

हरिद्वार, 03 अगस्त। लाखों-करोड़ों बहनों की श्रद्धा, आस्था व विश्वास के केन्द्र, मातृशक्ति को गौरव प्रदान करने वाली गुरुसत्ता के रूप में स्वामी रामदेव तथा आचार्य बालकृष्ण के आशीर्वाद से पतंजलि योगपीठ स्थित वैदिक गुरुकुलम् प्रांगण में रक्षा बंधन पर्व (श्रावणी उपाकर्म) हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। कार्यक्रम में बहनों ने गुरुसत्ता को रक्षासूत्र बांधकर आशीर्वाद प्राप्त किया। गुरुसत्ता ने राष्ट्रसेवा में अहर्निश संलग्न सभी माताओं व बहनों को रक्षाबंधन पर्व की शुभकामनाएँ प्रेषित की। इस अवसर पर स्वामी महाराज ने कहा कि रक्षा बंधन मात्र धागों का त्यौहार नहीं है, ये तो प्रतीक हैं कि हम धर्म, मर्यादा, जीवन के श्रेष्ठ आदर्शों व उनके अनुशासन में बंधे हैं। इनका अनुसरण करते हुए हम आगे बढ़ते रहें, यही रक्षा बंधन का संदेश है। जो योग करेंगे व सात्त्विक जीवन के अनुरूप जीवन जीएँगे, वे अपनी रक्षा के साथ-साथ बहन-बेटियों, धर्म व संस्कृति की भी रक्षा कर पाएँगे। उन्होंने कहा कि श्रावणी उपाकर्म युगों-युगों से श्रुति परम्परा का पर्व है। हम अपने पूर्वजों की श्रुति परम्परा का अनुसरण करते हुए ऋषि पथ पर, वेद पथ पर, भगवान् के पथ पर, सत्य के पथ पर, अभ्युदय व निःश्रेयश के पथ पर, प्रवृत्ति व निवृत्ति के पथ पर, त्रिवर्ग व मोक्ष के मार्ग पर, परा-अपरा विद्या के मार्ग पर चलते आए हैं। पूज्य स्वामी जी ने पूरे राष्ट्र व नेपाल सहित सनातन हिन्दु आर्य वैदिक ऋषि परम्परा में निष्ठा रखने वालों के साथ-साथ पूरे विश्व को श्रावणी उपाकर्म की शुभकामनाएँ प्रेषित की। स्वामी ने कहा कि इस उत्सव के प्रसाद स्वरूप परमात्मा सबके स्वास्थ्य व जीवन की रक्षा के साथ-साथ वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक जीवन व आचरण की रक्षा करे। उन्होंने कहा कि आज पूरा विश्व इस बात को मानता है कि योग, आयुर्वेद व अध्यात्म युक्त प्राकृतिक, नैसर्गिक व अहिंसक जीवन पद्धति ही हमारा जीवन कवच है। एक समय था जब लोगों ने पूर्वजों, जीवन पद्धतियों, विचारधाराओं, संस्कृतियों व सिद्धांतों के नाम पर लोगों को बाँटने का प्रयास किया लेकिन अब सब ये मानने लगे हैं कि दुनिया की सबसे प्राचीन, सबसे वैज्ञानिक, सबसे प्रामाणिक व सबसे व्यवहारिक जीवन पद्धति यदि कोई है तो वह वैदिक सनातन आर्य हिन्दु जीवन पद्धति है। अब सारी दुनिया इस सात्त्विक व अहिंसक जीवन पद्धति को अपना रही है। उन्होंने आशा व्यक्त की कि आने वाले 25-30 वर्षों में चाहे दुनिया के किसी भी मजहब का विस्तार जितना कम-ज्यादा हो, राजनैतिक विस्तार जिसका जितना कम-ज्यादा हो, वैचारिक व सांस्कृतिक मान्यताएँ कोई भी हों किन्तु पूरी दुनिया यौगिक, आध्यात्मिक, वैदिक, अहिंसक जीवन पद्धति का अनुसरण करेगी। हमारा गौरव हे कि हम दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति व वैदिक ऋषि परम्परा में जन्में हैं। कार्यक्रम में आचार्य बालकृष्ण ने कहा कि रक्षा बंधन में रक्षासूत्र व यज्ञोपवीत प्रतीकात्मक हैं। हम प्रतिदिन जो यज्ञोपवीत पहनते हैं इसका उद्देश्य भी तो यही है कि हमें स्मरण रहे कि हम ऋणि हैं, उऋण नहीं हैं। भारतवर्ष के कुछ इलाकों तथा नेपाल में इस पर्व को जनेऊ पूर्णिमा कहते हैं। आज मुख्य रूप से यज्ञोपवीत परिवर्तन का दिन है। परम्पराओं के मूल स्वरूप का हमें सतत स्मरण रखना चाहिए। आज भी ऐसी परम्पराएँ हैं कि जिस गुरु ने अपने शिष्य को यज्ञोपवीत धारण कराया, वह गुरु उसकी सदैव रक्षा के लिए संकल्पित रहता है। उन्होंने कहा कि रक्षा सदैव सक्षम व्यक्ति निर्बल की करता है। गुरु को ज्यादा सक्षम माना गया है इसलिए गुरु संकल्प लेता है कि वह अपने शिष्य की रक्षा सदैव करेगा। भाई व बहन में भाइयों को सक्षम माना जाता था किंतु आज हमारी बहनें भाइयों से भी ज्यादा सक्षम हैं। उन्होंने कहा कि सभी को सबल व सक्षम गुरु मिले तो कोई आत्महत्या नहीं करेगा। कोई भी स्थिति ऐसी नहीं जिसमें आत्महत्या का मार्ग चुनना पड़े। मनुष्य में वेद ज्ञान है किन्तु उसे जागृत करने का कार्य गुरु ही करता है। आचार्य जी ने कहा कि हमारी परम्परा व संस्कृति बहुत विशाल है। ये परम्पराएँ अन्य संस्कृतियों में नहीं हैं। भारतीय वैदिक संस्कृति में हमारे पूर्वज ऋषियों ने जीवन को उन्नत बनाने के लिए जहाँ नित्य कर्मों का विधान किया वहीं नित्य कर्मों के अन्तर्गत पंच महायज्ञों का भी विधान किया। हम प्रतिदिन जहाँ ब्रह्म उपासना करते हैं वहीं देवयज्ञ के रूप में अग्निहोत्र भी करते हैं। अपने माता-पिता व बड़े-बुजुर्गों के सम्मान में पितृ यज्ञ करते हैं। मनुष्य से इतर पशु-पक्षीयों का भी स्मरण प्रतिदिन रखते हुए गो-ग्रास व कुत्ते को रोटी देने की भी परम्परा पहले से रही है। यह हमारी संस्कृति का अंग है। ऐसी पावनी संस्कृति दुनिया में कोई अन्य नहीं है। हमारे ऋषियों ने नित्य कर्मों के साथ-साथ नैमित्तिक कर्मों को भी निमित्त बनाया, जैसे- अलग-अलग त्यौहार नैमित्तिक कर्म में आते हैं जिन्हें हम वर्ष भर में 2-3 माह के अन्तराल पर हर्षोल्लास के साथ मनाते हुए अपनी मर्यादा व गौरव का भी स्मरण करते हैं। हमेें संस्कारित करने के लिए 16 संस्कारों की ऋषियों की परम्परा भी रही है। यहाँ तो जन्म भी उत्सव है, मृत्यु भी उत्सव है। इन्हीं बंधनों व परम्पराओं में हम बंधे हुए हैं। आचार्यश्री ने कहा कि इन परंपराओं में बंधकर इस जीवन को उन्नत व समृद्धशाली बनाने का यह अनुपम अवसर भारतीय सनातन वैदिक संस्कृति में जीने वालों को ही प्राप्त है।

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