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लोकतंत्र का चीरहरण


भारत देश एक लोकतांत्रिक देश है और इसके लोकतंत्र की सारी दुनिया मे दुहाई दी जाती है लेकिन क्या वास्तव में इस देश मे लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत है या अंतिम साँसे ले रहा है ? सवाल बहुत बड़ा है।

रिपोर्ट  - à¤¸à¤šà¤¿à¤¨ तिवारी

भारत देश एक लोकतांत्रिक देश है और इसके लोकतंत्र की सारी दुनिया मे दुहाई दी जाती है लेकिन क्या वास्तव में इस देश मे लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत है या अंतिम साँसे ले रहा है ? सवाल बहुत बड़ा है और इसका जवाब भी छोटा नही हो सकता इसको समझने के लिए हमे भारत देश की आजादी से लेकर अभी तक की घटनाओं पर नजर डालनी पड़ेगी , लोकतंत्र की सीढ़ी का पहला पॉयदान आजादी है , सबसे पहले हमें इस आजादी का मतलब समझना पड़ेगा , कहने को तो हम सब आजाद है और देश के संविधान के अनुसार सबके पास अधिकार और कर्तब्य हैं जिनको सबको निभाना है , लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में ऐसा है कि सब आजाद हैं, क्या देश मे रहने वाला आम आदमी आजाद है , क्या देश का अधिकारी वर्ग आजाद है , क्या देश मे नौकरी करने वाला आजाद है , क्या देश का नौजवान , महिला , बच्चे आजाद है ? यहाँ पर आजादी का मतलब संविधान के अनुसार मील अधिकारों से है , लेकिन संविधान के अनुसार मिले अधिकारों के बाद भी आज हर एक व्यक्ति किसी न किसी का गुलाम है वो अपने न तो कर्तब्य निभा पा रहा न ही वो अपने अधिकारों का प्रयोग कर पा रहा है , हर एक जूनियर अपने सीनियर का गुलाम है , वो अपने अधिकारों का प्रयोग नही कर पाता उसका संविधान और उसका कर्तव्य सिर्फ सीनियर की बात को मानना है फिर वो गलत हो या सही , फिर इसमें चाहे प्रशासन हो पार्टी हो या कोई प्राइवेट संस्थान हो । हर एक व्यक्ति गुलामी की जिंदगी जी रहा । फिर हम कैसे कह सकते है कि देश आजाद है । और कैसे कह सकते है कि देश संविधान के अनुसार चल रहा है । ऐसा लग रहा है जैसे लोकतंत्र अन्तिम साँसे ले रहा है! सत्ता की भूख चरम सीमा पर है! सत्ता के लिये हिन्दू मुस्लिमों के मन में ज़हर पैदा किया जा रहा है! युनिवर्सिटियाँ सुलग रही हैं! छात्र पढ़ाई छोड़ कर आन्दोलन कर रहे हैं ! व्यापार ठप पड़ गया है! राजा महाराओं की तरह जनता के पैसे पर ऐश करते मंत्री,सांसद,विधायक मौज ले रहे हैं ?क्या यही लोकतंत्र है? भारत के करोड़ों युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं! भारी मात्रा में लोग भूखे मर रहे हैं! पर चंद मुट्ठी भर लोग जनता के पैसे पर ऐश कर रहे हैं! क्या यही लोकतंत्र है?लोकतंत्र के नाम पर नेतागीरी करने वाले लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं, जनता के मन से लोकतंत्र का मोह भंग हो रहा है, लोकतंत्र के नाम पर गन्दी राजनीति हो रही है! जन सेवा के नाम पर निजी स्वार्थ की राजनीति हो रही है! जन सेवा के नाम पर राजनीतिक नेताओं का एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोपण करना और साथ मे लोकतंत्र की दुहाई देना ऐसा लगता है जैसे लोकतंत्र की देवी को बीच मे खड़ी करके उसका साथ मिलकर चीरहरण कर रहे हो । कोई नेता दलितों का मसीहा होने का नाटक करता है कोई अन्य जाति विशेष का, सत्यता यह है कि जातियाँ अपनी जगह पर रह गयीं, जातियों के मसीहा बनने वाले आगे बढ़ गये! लोकतंत्र के पहरूओं का नाटक देखते- देखते जनता आज़िज़ आ चुकी है! और ऐसा प्रतीत होता लोकतंत्र अब समाप्ति की ओर है! लोकतंत्र का आनन्द चंद मुट्ठी भर लोगों को उठाते देख कर जनता अब लोकतंत्र की सत्यता को समझ चुकी है! यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में सिसकती साँसो के साथ लोकतंत्र दम तोड़ रहा है!  कोई भी सभ्य समाज नियमों से ही चल सकता है। जनहितकारी नियमों को बनाने और उनके परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए शासन की आवश्यकता होती है। राजतंत्र, तानाशाही, धार्मिक सत्ता या लोकतंत्र, नामांकित जनप्रतिनिधियों जैसी विभिन्न शासन प्रणालियों में लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि लोकतंत्र में आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है एवं उसे भी जन नेतृत्व करने का अधिकार होता है। विधायिका के जनप्रतिनिधियों का चुनाव आम नागरिकों के सीधे मतदान के द्वारा किया जाता है किंतु हमारे देश में आजादी के बाद के अनुभव के आधार पर, मेरे मत में इस चुनाव के लिए पार्टीवाद तथा चुनावी जीत के बाद संसद एवं विधानसभाओं में पक्ष विपक्ष की राजनीति ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में सामने आई है।  सत्तापक्ष कितना भी अच्छा बजट बनाये या कोई अच्छे से अच्छा जनहितकारी कानून बनाये, विपक्ष उसका विरोध करता ही है। उसे जनविरोधी निरूपित करने के लिए तर्क कुतर्क करने में जरा भी पीछे नहीं रहता। ऐसा केवल इसलिए हो रहा है क्योंकि वह विपक्ष में है। हमने देखा है कि वही विपक्षी दल जो विरोधी पार्टी के रूप में जिन बातों का सार्वजनिक विरोध करते नहीं थकता था, जब सत्ता में आया तो उन्होंने भी वही सब किया और इस बार पूर्व के सत्ताधारी दलों ने उन्हीं तथ्यों का पुरजोर विरोध किया जिनके कभी वे खुले समर्थन में थे। इसके लिये लच्छेदार शब्दों का मायाजाल फैलाया जाता  है।  ऐसा बार-बार लगातार हो रहा है, अर्थात हमारे लोकतंत्र में यह धारणा बन चुकी है कि विपक्षी दल को सत्ता पक्ष का विरोध करना ही चाहिये। शायद इसके लिये स्कूलों से ही  वादविवाद प्रतियोगिता की जो अवधारणा बच्चों के मन में अधिरोपित की जाती है, वही जिम्मेदार हो। वास्तविकता यह होती है कि कोई भी सत्तारूढ़ दल सब कुछ सही या सब कुछ गलत नहीं करता। सच्चा  लोकतंत्र तो यह होता कि मुद्दे के आधार पर पार्टी निरपेक्ष वोटिंग होती, विषय की गुणवत्ता के आधार पर बहुमत से निर्णय लिया जाता पर ऐसा हो नहीं रहा है।  अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में सुधार की व्यापक संभावना है। दलगत राजनैतिक धु्व्रीकरण एवं पक्ष विपक्ष से ऊपर उठकर मुद्दों पर आम सहमति या बहुमत पर आधारित निर्णय ही विधायिका का निर्णय हो, ऐसी सत्ताप्रणाली के विकास की जरूरत है। इसके लिए जनशिक्षा को बढ़ावा देना तथा आम आदमी की राजनैतिक उदासीनता को तोडऩे की आवश्यकता दिखती है। जब ऐसी व्यवस्था लागू होगी, तब किसी मुद्दे पर कोई 51 प्रतिशत या अधिक जनप्रतिनिधि एक साथ होगें तथा किसी अन्य मुद्दे पर कोई अन्य दूसरे 51 प्रतिशत से ज्यादा जनप्रतिनिधि, जिनमें से कुछ पिछले मुद्दों पर भले ही विरोधी रहे हों, साथ होंगे तथा दोनों ही मुद्दे बहुमत के कारण प्रभावी रूप से कानून बनेंगे।  क्या हम निहित स्वार्थो से ऊपर उठकर ऐसी आदर्श व्यवस्था की दिशा में बढ़ सकते है एवं संविधान में इस तरह के संशोधन कर सकते हैं। यह खुली बहस का एवं व्यापक जनचर्चा का विषय है जिस पर अखबारों, स्कूल कालेज, बार एसोसियेशन, व्यापारिक संघ, महिला मोर्चे, मजदूर संगठन आदि विभिन्न मंचों पर खुलकर चर्चा होने की जरूरत हैं। 

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