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निष्पक्ष मीडिया एक भ्रम है, पहले वह कारपोरेट के लिए काम करता था, अब वह खुद कारपोरेट हो गया है


आम लोगों के साथ मीडिया से जुड़े हुए भी बहुत सारे लोगों में यह भ्रम है कि मीडिया निष्पक्ष होता है। आज भी मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह वही भूमिका निभाए जो उसने स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई थी।

रिपोर्ट  - à¤°à¤¤à¤¨à¤®à¤£à¥€ डोभाल

आम लोगों के साथ मीडिया से जुड़े हुए भी बहुत सारे लोगों में यह भ्रम है कि मीडिया निष्पक्ष होता है। आज भी मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह वही भूमिका निभाए जो उसने स्वतंत्रता आंदोलन में निभाई थी। प्रिंट हो चाहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में अभी भी यह भ्रम पालना बड़ी भारी भूल है। यह याद रखना चाहिए कि व्यवस्था का हर अंग शासक वर्ग को संरक्षण देता है शोषित वर्ग का दमन करने वालों का साथ देता है। यह याद रखना चाहिए जब हमारा समाज वर्गों में विभाजित है तो मीडिया भी विभाजित है। वह शासक वर्ग के सलाहकार की भूमिका अदा कर रहा है। वह सलाह देता है कि सरकार को बाजार का नियंत्रण नहीं करना चाहिए। उसको मिनिमम गवर्नेंस करना चाहिए। सब कुछ मुनाफा के लिए दांव पर लगाया जा रहा है। मुनाफा कमाने के लिए सरकार अपनी ही संपत्तियों को बेच रही है। मीडिया सरकार की पीठ ठोक रहा है और उसके पक्ष में जनमत बनाने का काम कर रहा है। मीडिया ने लोकतंत्र में विरोध की आवाज को भी सिकोड़ दिया है। यह देखा जा रहा है कि न्यायपालिका भी कारपोरेट को संरक्षण प्रदान कर रही है उनके हित आगे बढ़ाए जा रहे हैं। जिस प्रकार मीडिया पहले कारपोरेट का हित संरक्षण करता था लेकिन अब मीडिया खुद कारपोरेट हो गया है, उसके भी घराने हो गए हैं। मीडिया का उद्देश्य मुनाफा कमाना रह गया है, न्यूज पहुंचाना नहीं है क्योंकि वह खुद एक उद्योग हो गया है। उद्योग में जहां अतिरिक्त श्रम तथा उद्योग में उत्पादित सामान से मुनाफा होता है। इसके विपरीत अखबार ऐसा सामान है जिसको लागत मूल्य से भी बहुत कम मूल्य पर बेचा जाता है ।मोटे अनुमान के अनुसार एक अखबार की कीमत 20 से ₹25 बैठती है, जिसे 5-6 रुपए मात्र में बेचा जाता है। यही खेल है जिसे समझने की जरूरत है आखिर कैसे 25 रुपए का अखबार 5 रुपए में बेचकर भी मीडिया उद्योग करोड़ों का मुनाफा कमाता है। घाटे में अखबार बेचकर भी इस उद्योग का कैसे विस्तार हो रहा है। जब आप इस खेल को समझ लेंगे तो फिर 5 रुपए का अखबार खरीद कर आप यह शिकायत नहीं करेंगे कि अखबार में उसकी न्यूज क्यों नहीं आती है और आती भी है तो कौने में क्यों आती है। मीडिया उद्योग चलता है सरकार और कारपोरेट घरानों से मिलने वाले विज्ञापन से । जिससे उसको अखबार घाटे में बेचकर भी इतना मुनाफा होता है कि वह खुद कारपोरेट हो गया है इसलिए जो विज्ञापन देता है, माडिया उद्योग, सरकार व कारपोरेट के हितों की रक्षा करता है। सरकार के पक्ष में जनमत और कारपोरेट के लिए बाजार तैयार करता है। इसके लिए वह दलाली तक के लिए तैयार रहता है। मुनाफा के लिए वह सब कुछ करने को तैयार रहता है। नव उदारीकरण के दौर में मीडिया लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ माहौल बनाने में लगा हुआ है। सरकार की नीति क्या हो उसमें मंत्री कौन हो इसके लिए भी मीडिया कारपोरेट घरानों की दलाली करता है लॉबिंग करता है। वर्तमान में तो स्थिति यह हो गई है कि मीडिया घराने राजनीतिक दलों में कौन नेता हो तथा चुनाव में किसको टिकट दिया जाए इसके लिए भी कारपोरेट घरानों की ओर से लॉबिंग करने लगा है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विपरीत व्यक्ति विशेष का चेहरा सामने लाकर उसके पक्ष में जनमत बनाने का काम किया जा रहा है। राज्य में मुख्यमंत्री कौन बने इसके भी लॉबिंग की जाती है। एक भ्रम अभी यह है कि जिसका सरकुलेशन व टीआरपी ज्यादा होगा उसे विज्ञापन ज्यादा मिलेगा, लेकिन ऐसा नहीं है। जो लोग अखबारी दुनिया की थोड़ी भी समझ रखते हैं उन्हें पता है कि हिंदी अखबारों से बहुत कम सरकुलेशन वाले अंग्रेजी अखबारों की विज्ञापन दर तथा हिन्दी अखबारों के विज्ञापन दरों में जमीन आसमान का अंतर है। जो विज्ञापन हिंदी के अखबारों में एक लाख रुपए में छप जाता है वही विज्ञापन अंग्रेजी के अखबार में 10 लाख रुपए में छपता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अंग्रेजी वाले पाठक की आय, आर्थिक स्थिति तथा उसकी क्रय शक्ति हिंदी अखबार के पाठक से कहीं अधिक है। अंग्रेजी के पाठक से बाजार को ज्यादा फायदा है ज्यादा मुनाफा है इसलिए अंग्रेजी के अखबार में विज्ञापन की दर अधिक होती है। नव उदारीकरण के दौर में आर्थिक असमानता बढ़ने के साथ साथ शहरों व गांव में नव धनाढ्य वर्ग भी पैदा किया है। 90 के दशक में कार का विज्ञापन केवल अंग्रेजी के अखबार में ही आता था। हिंदी के अखबार में कार का विज्ञापन नहीं होता था क्योंकि वह कार नहीं खरीद सकता था। लेकिन 90 के बाद हिंदी के अखबार में भी कार का विज्ञापन आने लगा क्योंकि वह भी कार खरीदने लगा है। मीडिया अब इतना शक्तिशाली हो गया है कि वह सरकारों बनाने, बिगाड़ने तथा खास विचारधारा की पार्टी के पक्ष में मुहिम चलाने में शामिल हो गया है। यह नई नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी की लड़ाई करा रहा है। मीडिया तय कर रहा है उसको लोकतंत्र से नहीं मुनाफे से मतलब है इसलिए नीति को पीछे कर नेता को आगे करने में लगा है। वह मुनाफे की गारंटी के लिए एक नेता तथा कारपोरेट के लिए बाजार का वातावरण तैयार करना अपना मुख्य उद्देश्य बना लिया है और इसके लिए वह जमीर भी बेचने को तैयार है। लोकतंत्र को वह मुनाफे में रोड़ा मनता है।

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