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चौथा पाया


मुझे यह कहने में कोई आपत्ति नही कि भारत का मीडिया आज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहाँ पर भरोसा खत्म हो रहा है। यूँ तो समाज का हर व्यवसाय या कार्यकलाप भरोसे की बदौलत ही संभव हो पाता है |

रिपोर्ट  - à¤¸à¤šà¤¿à¤¨ तिवारी

मुझे यह कहने में कोई आपत्ति नही कि भारत का मीडिया आज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहाँ पर भरोसा खत्म हो रहा है। यूँ तो समाज का हर व्यवसाय या कार्यकलाप भरोसे की बदौलत ही संभव हो पाता है लेकिन समाचार माध्यम तो एक ऐसा धंधा है जिसमें आपकी विश्वसनीयता ही आपकी पूंजी होती है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ इसको यूँ ही नहीं कहा गया है। अपने बुद्धिमान होने के सामंती घमंड मे चूर कोई मीडिया व्यवसायी आपकी बात सुनेगा क्यू भला? सीधी सी बात है की कड़े कानूनों द्वारा ही इनको नियंत्रित करने की ज़रुरत है। आप सोचिये सिनेमा एक कथात्मक माध्यम है। वो कभी भी आपको जगाने का दावा नहीं करतो। लेकिन सेंसर के कठिन दौर से उसको गुजरना पड़ता है। तो आखिर इन समाचार व्यवसाइयों ने क्या पुण्य कर लिया है की इनको स्व-नियंत्रण की आजादी चाहिये। संविधान में कही भी प्रेस के लिये कोई विशेषाधिकार का प्रावधान नहीं है। उसके अनुच्छेद 19 में जो वाक एवं अभियक्ति का अधिकार है वो आम लोगों को दिया गया मौलिक अधिकार है। प्रेस भी उसी का इस्तेमाल कर ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठाने का उपरोक्त वर्णित ढोंग कर रहा है। लेकिन उस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए उसी अनुच्छेद मे वर्णित ढेर सारे प्रतिबंधों को नजरंदाज कर जाना आज की बड़ी समस्या हो गयी है। सीधी सी बात है कि आप वही तक स्वतंत्र हैं जहां तक किसी दूसरे की आजादी का हनन ना होता हो। लेकिन मीडिया द्वारा नागरिको को मिले इस अधिकार को जबरन हथिया लिये जाने के कारण तो कई बार व्यक्ति के जीने के मौलिक अधिकार का ही उल्लंघन हो जाता है। आप गौर करें मीडिया के अलावा समाज का कोई भी अनुषंग ऐसा नहीं है जिसको काबू में करने का इंतजाम ना किया गया हो। लेकिन प्रेस हर तरह के प्रतिबंधो से मुक्त है,स्वछन्द है। जब भी उसके नियमन के लिये किसी भी तरह का प्रयास किया जाता है तो सारे के सारे सम्बंधित लोग एक साथ गिरोहबंदी कर लेते हैं और स्वनियंत्रण का राग अलापना शुरू कर देते हैं। आखिर स्व-नियंत्रण की आजादी तो देवताओं को भी नसीब नहीं है। तो मीडिया को ही यह विशेषाधिकार क्यूँ? ना तो नेताओं की तरह इन्हें हर 5 साल पर या कई बार उससे पहले भी लोगों से अपनी मुहर लगवानी होती है,ना ही उनकी तरह उसका हर कदम न्यायिक समीक्षा के दायरे मे भी होता है। तो आखिर आप ही अपवाद क्यू रहे? रामायण में गोस्वामी जी ने लिखा “समरथ को नहीं दोष गुसाई” आखिर इतना सामर्थ्यवान आपको क्यू बना दिया जाए कि आपको खुद का दोष दिखाई ही ना दे? अब यह समय आ गया है कि समाज और मीडिया में दिन प्रतिदिन होते जा रहे तकनीकी और नैतिक परिवर्तन के मद्देनजऱ एक न्यायिक अधिकार प्राप्त निकाय का गठन किया जाये। निश्चित ही ईमानदार लोगों को ऐसे इंतजाम से कोई तकलीफ नहीं होगी। लेकिन “दुकानदार” किनारे होते जायेंगे और मीडिया फिर से अपने जिम्मेदार स्वरुप में खुद को पेश कर पायेगा।

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