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आगे आगे बकरियों का झुंड जा रहा था पीछे से हो हा करता हुआ एक किसान उनको डंडे से डराता और थमकाता लिए जा रहा बकरियां बड़ी खुश थी उछल कूद करती हुई जा रहीं थी वह खुश हो रही थी कि अब हमें आजादी मिल गई हमे जंगल मे खुलकर घूमने और अच्छी घास खाने को मिलेगी

रिपोर्ट  - à¤¸à¤šà¤¿à¤¨ तिवारी

आगे आगे बकरियों का झुंड जा रहा था पीछे से हो हा करता हुआ एक किसान उनको डंडे से डराता और थमकाता लिए जा रहा बकरियां बड़ी खुश थी उछल कूद करती हुई जा रहीं थी वह खुश हो रही थी कि अब हमें आजादी मिल गई हमे जंगल मे खुलकर घूमने और अच्छी घास खाने को मिलेगी , लेकिन आगे जाकर किसान उन बकरियों को एक कसाई के हवाले कर देता है जो उनको एक ट्रक में डाल कर चल देता है किसान नोटों की गड्डी जेब मे डालता है और शान से चल देता है , यह कहानी मैंने इसलिए सुनाई क्योंकि उन बकरियों और आम जनता में कोई फर्क नही, न ही उस किसान और आंदोलनकारी से नेता बने व्यक्ति में कोई फर्क है , हमेशा से ही आम आदमी जिसको आशा की किरण समझ कर आगे जाता है वह सिर्फ एक छलावा साबित होती है ,और नेता आम आदमी को सिर्फ एक टूल की तरह इस्तेमाल करता है फिर फेंक देता है , बड़ी बड़ी बातो से आम आदमी को छला जाता है कभी आजादी की लड़ाई बताकर जनता को आंदोलन की आग के झोका जाता है, कभी महगाई भ्रस्टाचार से मुक्ति के नाम पर लेकिन आज तक न तो जनता को सही मायने आजादी मिली न ही महंगाई भ्रष्टाचार से मुक्ति । भारत देश आंदोलनों का देश है जब भी कोई बड़ा आंदोलन इस देश मे शुरू होता है तो कुछ पंक्तियाँ है जो हर एक आंदोलन में दोहराई जाती है वैसे तो यह पंक्तियां सिर्फ कहने के लिए लाइन नही एक विचार है लेकिन देश मे इनका प्रयोग करके जिस तरह से आम आदमी को ठगा गया है बेवकूफ बनाया गया है उन्हें देखकर इन्हें सिर्फ कहने वाली पंक्ति ही कहे तो ज्यादा बेहतर होगा , जैसे सिंहासन खाली करो जनता आती है, यह आजादी की दूसरी लड़ाई है, पहले लड़े थे गोर अंग्रजो से अब काले अंग्रेजों से लड़ना है , इस बार अगर नही संभले तो देश बिक जाएगा गुलाम हो जाएगा , लुट जाएगा, इस लड़ाई में जो साथ नही देगा उसके बच्चे उसको कोसेंगे, इस तरह की हजार तरह की बाते है जो आपको बताई जाती रही है सुनाई जाती रही हैं, और अंत मे जनता सिर्फ खुद को ठगी महसूस करती है , और देश को कुछ नए नेता या यूं कहें ठग मिल जाते हैं । 1947 में देश की सारी जनता सड़क पर आ गई थी लाखो लोगो के बलिदान के बाद जनता ने अंग्रेजों से देश खाली करा लिया , जनता ने अंग्रेजों से सिंघासन खाली कराया और उस सिंघासन पर कुछ खादी कुर्ते वाले सफेदपोश विराजमान हो गए , राजकाज चलने लगा प्रजातंत्र आ गया था , अब नेता राजा हो गए थे और जनता वैसे ही प्रजा बनी रही , महात्मा गांधी अब सिर्फ महात्मा बनकर अपने आश्रम में विराजमान हो गए थे , और देश की बागडोर खादी वालो ने अपने हाथ मे ले ली थी , सिंघासन में बैठने की लड़ाई कुछ इस कदर बड़ी की भारत माँ के अंगों पर आरी चलाकर दो खंड कर दिए , भारत माँ की कसम खाने वाले खुद को देशभक्त देश का सच्चा सपूत कहने वालों ने देश के दो टुकड़े कर दिए और उस विभाजन में हजारों लोगों की जान चली गई हजारो माओ ने अपने बेटे हजारो बहनों ने अपने भाई खो दिए , लेकिन चंद खादी वालों की सत्ता की भूख इतनी बढ़ गई थी कि वह हजारों मासूम जानें खा गए , बेशर्मी की हद तो यह है कि वह इतने सब के बाद भी खुद को जनता का मसीहा घोषित करते रहे चाहे वो भारत हो या पाकिस्तान दोनों देशों की जनता सिर्फ उस किसान की बकरी की तरह हो गए थे जिनको अपनी मौज मस्ती के लिए मौत के मुँह में झोंक दिया था । नए सपने और बदलाव के बहाने पर हर बार ठगी गई जनता को आगे 1974 में फिर ठगा गया हालात तब भी कमोबेश आज जैसे ही थे, महँगाई थी, भ्रष्टाचार था, सत्ता निरंकुश थी, जनता त्रस्त थी, कहने को लोकतंत्र था, लेकिन लोक पूरी तरह ग़ायब हो चुका था, सिर्फ़ तंत्र ही तंत्र बचा था, जो देश को किधर ले जा रहा था, किसी को पता नहीं था, ऐसे में गुजरात से छात्रों का 'नवनिर्माण आन्दोलन' शुरू हुआ और देखते ही देखते वह बिहार पहुँचा और 'सम्पूर्ण क्रान्ति' का नारा बुलन्द हो गया, जेपी यानी जयप्रकाश नारायण के पीछे सारा देश खड़ा हो गया, वह लोकनायक कहलाये जाने लगे, और आख़िर जनता की ताक़त ने इमर्जेन्सी के तमाम दमन को बर्दाश्त करते हुए भी इन्दिरा गाँधी के शासन का ख़ात्मा कर दिया। जनता जीत गयी थी, दिल्ली की सरकार बदल गयी थी, लेकिन सम्पूर्ण क्रान्ति के सपने की गठरी के साथ जनता और जेपी दोनों किनारे लगाये जा चुके थे, राजनीति ने उन्हें ठग लिया था, ठीक वैसे ही जैसे आज़ादी के बाद गाँधी ठगे हुए हाथ मलते रह गये थे, हालाँकि आज़ादी मिलने के कुछ सालों तक लोगों को यह भरम ज़रूर बना रहा कि जनता का राज आ चुका है, वरना 26 जनवरी 1950 को देश का पहला गणतंत्र मनाने के लिए 'दिनकर' यह न लिखते कि 'सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है। फिर 1988 में एक बार फिर भ्रष्टाचार के मुद्दे ने देश को हिला दिया बोफ़ोर्स तोपों का मामला गूँजा. वी. पी. सिंह के पीछे जनता फिर खड़ी हुई, नारा गूँजा, 'राजा नहीं फ़क़ीर है, देश की तक़दीर है,' एक बार फिर लगा कि भ्रष्टाचार हारेगा, ग़रीब जीतेगा, व्यवस्था में बुनियादी बदलाव होंगे. लेकिन मंडल-कमंडल की राजनीति में देश ऐसा बँटा कि सब बंटाधार हो गया । उसके बाद अन्ना आंदोलन हुआ 5 अप्रेल 2011 को समाजसेवी अन्ना हजारे एवं उनके साथियों के जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ, जिनमें अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण, बाबा रामदेव आदि शामिल थे। संचार साधनों के प्रभाव के कारण इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे। इन्होंने भारत सरकार से एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल विधेयक बनाने की माँग की थी और अपनी माँग के अनुरूप सरकार को लोकपाल बिल का एक मसौदा भी दिया था। किंतु मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने इसके प्रति नकारात्मक रवैया दिखाया और इसकी उपेक्षा की। इसके परिणामस्वरूप शुरु हुए अनशन के प्रति भी उनका रवैया उपेक्षा पूर्ण ही रहा। किंतु इस अनशन के आंदोलन का रूप लेने पर भारत सरकार ने आनन-फानन में एक समिति बनाकर संभावित खतरे को टाला और 16 अगस्त तक संसद में लोकपाल विधेयक पास कराने की बात स्वीकार कर ली। अगस्त से शुरु हुए मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया वह कमजोर और जन लोकपाल के सर्वथा विपरीत था। अन्ना हजारे ने इसके खिलाफ अपने पूर्व घोषित तिथि 16 अगस्त से पुनः अनशन पर जाने की बात दुहराई। सरकार ने इसकी राह में कई रोड़े अटकाए एवं 16 अगस्त को अन्ना हजारे एवं उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया। किंतु इससे आंदोलन पुरे देश में भड़क उठा। देश भर में अगले 12 दिनों तक लगातार बड़ी संख्या में धरना, प्रदर्शन और अनशन आयोजित किए गए। अंततः संसद द्वारा अन्ना की तीन शर्तों पर सहमती का प्रस्ताव पास करने के बाद 28 अगस्त को अन्ना ने अपना अनशन स्थगित करने की घोषणा की। अन्ना आंदोलन एक ऐसा आंदोलन था जिसमे पूरा देश सड़क पर आ गया था हजारो लोगो ने अपना बिजनेस लड़को ने अपनी पढ़ाई छोड़कर आंदोलन में तन मन और धन से योगदान दिया , उनको इस आंदोलन से एक नए भारत का सपना दिख रहा था देश को अन्ना केजरीवाल में एक नई आस दिख रही थी उपेक्षित आम आदमी गरीब केजरीवाल की तरफ आशा भारी दृष्टि से देख रहा था आंदोलन से एकजुट हुए हुजूम को केजरीवाल ने भुनाया और एक नई पार्टी आम आदमी पार्टी का गठन कर लिया दिल्ली में उनकी सरकार भी बन गई फिर धीरे धीरे केजरीवाल की सत्ता की बढ़ती चाहत ने आंदोलन के मुख्य स्तम्भ रहे लोगो को एक एक करके किनारे लगाना शुरू कर दिया , आंदोलन में जिन लोगो ने अपना सबकुछ बर्बाद कर दिया था वह अरविंद के इस रूप को देखकर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे और देश की जनता जो पहले ही कई नेताओ और पार्टियों को झेल रही थी इनको भी उसी कैटेगरी का मान कर शांत हो गई । महगाई भ्रष्टाचार अत्याचार और भुखमरी बेरोजगारी से वो पहले भी मर रहे थे और आज भी मर रहे शायद इसलिए इनको आम आदमी कहते हैं जिसको कोई भी आम की तरह चूस कर फेंक दे । देश की जनता आज भी नेताओं की टूलकिट की तरह काम कर रही है जिसे कोई जाति के नाम पर कोई धर्म के नाम पर कोई मंहगाई के नाम पर कोई गरीबी के नाम पर सिर्फ यूज कर रहा है और उस किसान की बकरी तरफ आशा की किरण दिखा कर मौत के मुँह झोंक दिया जाता है । आशा अर्थात होप, इस देश मे आजादी से लेकर आजतक विभिन्न लोगो ने विभिन्न तरीके से सिर्फ होप बेच कर अपनी दुकान चलाई है वो अरबपति हो गए और जनता आज भी वहीं है जहाँ वो कल थी । आज अगर जनता खुद को इनके चंगुल से बचाना चाहती है और इनके छलावे से बचना चाहती है तो इनकी जो होप की शोप है उससे बचना चाहिए।

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