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व्यक्ति के जीवन को सही मार्ग पर ले जाने तथा उत्तम चरित्र निर्माण मे सोलह संस्कार का महत्वपूर्ण रोल है।


संस्कार ही जीवन आरम्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक कर्म के साथ सन्तुलन बनाने तथा अधर्म, अन्याय तथा अनीति कारक कर्म करने से व्यक्ति को बचाकर रखते है। इसलिए सनातन परम्परा मे सोलह संस्कारों को जीवन का मूल मंत्र माना गया है।

रिपोर्ट  - allnewsbharat.com

हरिद्वार- 20 अक्टूबर 2021 व्यक्ति के जीवन को सही मार्ग पर ले जाने तथा उत्तम चरित्र निर्माण मे सोलह संस्कार का महत्वपूर्ण रोल है। संस्कार ही जीवन आरम्भ से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक कर्म के साथ सन्तुलन बनाने तथा अधर्म, अन्याय तथा अनीति कारक कर्म करने से व्यक्ति को बचाकर रखते है। इसलिए सनातन परम्परा मे सोलह संस्कारों को जीवन का मूल मंत्र माना गया है। गुरूकुल कांगडी विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ0 शिवकुमार चौहान ने संस्कार एवं चरित्र निर्माण आज की प्रमुख आवश्यकता विषय पर सहारनपुर की एक सामाजिक संस्था अभ्युदय द्वारा आयोजित ऑन-लाईन कार्यशाला के उदघाटन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप मे व्यक्त किये। उन्होने कहॉ कि हिन्दू धर्म भारत का सर्वप्रमुख धर्म है। जिसकी प्राचीनता एवं विशालता के कारण ही यह सनातन धर्म कहलाता है। महर्षि व्यास द्वारा मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार द्वारा जीवन के कुशल संचालन की व्यवस्था थी। जिसमे गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नायन, जातकरम, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, आवसश्याधाम एवं अन्तेष्टि। गर्भाधान मे महर्षि चरक ने मन का प्रसन्न और पुष्ट रहना जरूरी माना है। पुंसवन संस्कार के माध्यम से गर्भस्थ शिशु मे संस्कारों की नीव पडती है। सीमंतोन्नायन संस्कार गर्भ के चौथे, छठें तथा आठवे माह मे किया जाता है जिसमे शिशु सीखने के काबिल हो जाता है। जन्म के बाद जातकरम से बालक के दोष दूर किये जाते है। नामकरण से बालक को नाम, जन्म के बाद चौथे माह मे निष्क्रमण जिसका अर्थ बाहर निकालना है। जिसमे पिता पंचमहाभूतों से बालक की रक्षा हेतु प्रार्थना करता है। अन्नप्राशन मे बालक मे दांत निकलना, चूडाकर्म मे बालक का मुंडन संस्कार, कर्णवेध से ग्रह जनित दोषों का निराकरण, यज्ञोपवीत (उपनयन) जिसमे उप का अर्थ समीप तथा नयन का अर्थ ले जाने वाला अर्थात गुरू के समीप ले जाने वाला, वेदारम्भ मे वेदो का ज्ञान तथा केशांत मे केशों का अन्त विद्या अध्ययन से पहले कराने की भी परम्परा सनातन धर्म मे रही है। जबकि समावर्तन में विद्या अध्ययन के पश्चात घर वापसी, विवाह संस्कार एंव अन्तेष्टि मे शरीर का पुनः पुचामहाभूताों के मिल जाना है। इस प्रकार इन संस्कारों के द्वारा व्यक्ति को जीवन के कुशल संचालन एवं चरित्र निर्माण के साथ अन्तेष्टि के द्वारा वर्तमान जीवन पूरा करते हुए अगामी जीवन यात्रा को प्राप्त करता है। लेकिन आधुनिकता के रंग मे यह परम्परागत संस्कार निर्माण की व्यवस्था लगभग समाप्ति की कगार पर है। जिससे समाज मे व्यवहार सम्बंधी अनेक बुराईयों का बोलबाला है। कार्यशाला मे साहित्यकार रधुवीर सिंह, डॉ0 दयाल सिंह, डॉ0 श्रुति मोहन ने भी चरित्र निर्माण पर अपने विचार प्रस्तुत किये। कार्यशाला मे 64 व्यक्ति सम्मिलित हुए। संचालन लोकेन्द्र सिंह ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ0 बिजेन्द्र चौहान द्वारा किया गया।

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