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अहंकार की बुनियाद पर....


पाकिस्तान का एक तिहाई हिस्सा बाढ़ में डूबा हुआ है। दस लाख घर तबाह हुए हैं और शुरुआती दिनों में ही एक हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई है। वस्तुतः आंकड़ों से किसी के दुख का ठीक-ठीक पता नहीं चलता, लेकिन स्थितियां गंभीर हैं। चारों तरफ तबाही का मंजर है।

रिपोर्ट  - à¤¸à¥à¤¶à¥€à¤² उपाध्याय

पाकिस्तान का एक तिहाई हिस्सा बाढ़ में डूबा हुआ है। दस लाख घर तबाह हुए हैं और शुरुआती दिनों में ही एक हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई है। वस्तुतः आंकड़ों से किसी के दुख का ठीक-ठीक पता नहीं चलता, लेकिन स्थितियां गंभीर हैं। चारों तरफ तबाही का मंजर है। हालात का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जिस भारत को पाकिस्तान अपना दुश्मन मानता है, वो भी चिंतित है। प्रधानमंत्री मोदी ने वहां के लोगों के प्रति संवेदना भी जताई है और हर संभव मदद की बात भी कही है। इस पर पाकिस्तान की तरफ से औपचारिक धन्यवाद भी आ गया, लेकिन दोनों देशों के रिश्ते इतने गहरे संदेह का शिकार हैं कि उनके बीच किसी तरह का प्रेमपूर्ण रिश्ता लगभग असंभव ही लगता है। मशहूर लेखक खलील जिब्रान का कथन कि संदेह और प्रेम, दोनों एक साथ एक जगह पर नहीं रह सकते। भारत और पाकिस्तान पर यह कथन पूरी तरह लागू होता है। पाकिस्तान इतने मुश्किल हालात में भी भारत से मदद लेने की बजाए इस बात पर खुश है कि चीन, तुर्की ने मदद देने का वादा किया है। इन देशों के भौगोलिक जुड़ाव को देखिए और फिर भारत-पाकिस्तान की भौगोलिक सीमाओं पर निगाह डालिए तो आसानी से अंदाज लगाया जा सकता है कि कौन किसकी मदद करने की स्थिति में है। यकीनन, भारत ही मदद कर सकता है, लेकिन पाकिस्तान के सत्ता-समूह का अहंकार इतना बड़ा है कि वह उन जगहों पर तो दस्तक देगा, जहां से मदद मिलनी बहुत आसान नहीं है, लेकिन उनके लिए वाघा बॉर्डर या कश्मीर का ट्रेड रूट सबसे बेगानी जगह हो जाते हैं। मीडिया रिपोर्ट बता रही हैं कि इस वक्त पाकिस्तान में सब्जियों की कीमत एक महीना पहले की तुलना में आठ-दस गुना अधिक हो गई हैं। चूंकि ज्यादातर फसल और खेती की जमीन बाढ़ के पानी में डूब गई है, जिसके सूखने और दोबारा खेती लायक होने में कई महीने का वक्त लग जाएगा, इसलिए वहां बहुत आसानी से चीजों के दाम कम नहीं होंगे। पाकिस्तान के किसी भी अखबार या मीडिया माध्यम को ऑनलाइन देख लीजिए तो वहां का सारा व्यापारी वर्ग लगातार इस बात पर जोर दे रहा है कि कम से कम मौजूदा हालात में भारत से फलों-सब्जियों और जरूरी खाद्यान्न के व्यापार की अनुमति दे दी जाए। स्थितियों की जटिलता का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं की भारत में जो प्याज, टमाटर थोक के भाव में 20 से 25 रुपये किलो बिकता है, वह इस वक्त पाकिस्तान में डेढ़ सौ से दो सौ किलो के बीच मिल पा रहा है। दूध से लेकर आटे तक की यही स्थिति है। वहां खाने- पीने की कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसके दाम कुछ महीने के भीतर डेढ़ से दो गुने न हुए हों। कारोबारी अपनी सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि ज्यादा वक्त के लिए संभव ना हो तो दो-तीन महीने के लिए ही फलों-सब्जियों, विशेष रूप से टमाटर और प्याज के आयात की अनुमति दे दी जाए। मीडिया रिपोर्टाें से पता लग रहा है की सिंध प्रदेश में 80 फीसद से ज्यादा फसल नष्ट हो गई है। लगभग ऐसे ही हालात बलूचिस्तान और पाकिस्तानी पंजाब के एक बड़े हिस्से में में भी हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ और दुनिया भर के देशों से मदद की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन भारत की सद्भावना के प्रति उनका रुख बहुत ही उपेक्षा भरा है। और ऐसा नहीं है कि भारत पहली बार मदद कर रहा है। इससे पहले सन 2010 में पाकिस्तान में आई बाढ़ के दौरान भारत ने संयुक्त राष्ट्र और विश्व खाद्य कार्यक्रम के जरिए पाकिस्तान को करीब ढाई करोड़ डॉलर यानी 200 करोड रुपए (पाकिस्तानी करेंसी में 500 करोड़ रुपये) की मदद की थी। अब दोनों देशों के बीच अगस्त, 2019 से व्यापार बंद है। इससे पाकिस्तान की सरकारों पर कितना फर्क पड़ा, इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता, लेकिन आम लोगों पर सीधे तौर पर फर्क पड़ा है। भारत से कारोबार बंद होने के बाद पाकिस्तान में हजारों श्रमिकों का काम छिना है और सैकड़ों कारोबारी बर्बाद हुए हैं। इस बाबत लाहौर चैंबर्स ऑफ काॅमर्स की रिपोर्ट बहुत कुछ बताती है। और यह सब इतना एकतरफा भी नहीं है कि केवल पाकिस्तान को ही फर्क पड़ रहा है, बल्कि किसी न किसी स्तर पर भारत को भी फर्क पड़ता है। उदाहरण के लिए यदि इस वक्त भारत से बड़ी मात्रा में प्याज, टमाटर और दूसरी सब्जियां पाकिस्तान निर्यात की जाती तो भारत के उत्पादकों को काफी लाभ होता। इसी तरह से सूखे मेवों के मामले में पाकिस्तान से आयात की अनुमति हो तो भारत को लगभग डेढ़ दोगुनी कीमत पर दूसरे देशों से आयात ना करना पड़े। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इस समय पाकिस्तान में आम लोगों की जो दिक्कतें हैं, उनका त्वरित समाधान भारत के पास उपलब्ध है, लेकिन वहां की सत्ता चीन, ईरान और तुर्की के यहां अपने मांग-पत्र भेज रही है। हालांकि यहां यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि पाकिस्तान की राजनीति भी उसी तरह काम करती है, जैसे कि भारत की। पाकिस्तान में भी सत्ता का अहंकार बहुत गजब है। ऐसा नहीं कि यह अहंकार आज ही पैदा हुआ है। जनरल मुशर्रफ का दौर याद कीजिए, उस वक्त भारत में पाकिस्तान ऐसे कई बच्चों का उपचार किया गया जिनको हार्ट संबंधी जटिल समस्याएं थी। इस क्रम में भारत ने पाकिस्तान को एक प्रस्ताव दिया कि छोटे बच्चों के हृदय संबंधी जटिल मामलों का भारत में निशुल्क उपचार किया जाएगा। पाकिस्तान ने भारत की सहृदयता को इतने नकारात्मक ढंग से लिया कि जनरल मुशर्रफ ने भारत के गरीब बच्चों का पाकिस्तान में फ्री ईलाज कराने का एलान कर दिया। परिणाम यह निकला कि जरूरतमंद पाकिस्तानी अपने बच्चों का भारत में निशुल्क इलाज नहीं करा पाए। भारत के गरीब बच्चों का पाकिस्तान में ईलाज होने का तो कोई सवाल ही नहीं था। अब मौजूदा हालात को देखिए पाकिस्तान के वित्त मंत्री भारत से जरूरी चीजों का आयात किए जाने पर विचार करने की बात कह रहे हैं, लेकिन उसी सरकार में कई स्वर ऐसे भी हैं जो इससे इनकार कर रहे हैं क्योंकि वहां का विपक्ष इसे सरकार का यू-टर्न बता रहा है इसलिए सरकार भी राजनीतिक नफे-नुकसान को सामने रखकर इस मामले को टालते रहने के पक्ष में दिखती है। पाकिस्तान में भारत से कारोबार का मामला हमेशा ही एक गैरजरूरी राजनीतिक जिद का शिकार रहा है। कम ही लोगों को इस बात पर यकीन होगा कि आजादी के बाद के शुरुआती 15 साल में भारत और पाकिस्तान एक दूसरे के सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर थे, लेकिन आज की तारीख में दोनों के बीच के कारोबार का आंकड़ा इतना कम है कि उसकी तुलना दूरदराज के किसी गरीब अफ्रीकी देश से ही की जा सकती है। भले ही पाकिस्तान के अर्थशास्त्री इस बात पर जोर देते हैं कि भारत से व्यापक स्तर पर कारोबार पाकिस्तान को बहुत बड़ी राहत देगा, लेकिन पाकिस्तान के सत्ताधीशों को लगता है कि उनके लिए बाढ़ से घिरे अपने करोड़ों लोगों की जिंदगी बचाने के काम में भारत की मदद लेने की बजाय कश्मीर के मुसलमानों का राग अलापना कहीं अधिक जरूरी है। यही वो विरोधाभास है, जिसकी बुनियाद पर पाकिस्तान टिका है और यही वो दंभ है जो ऐलान करता है कि आधी रोटी खाएंगे, भूखे पेट सो जाएंगे, लेकिन भारत से मदद नहीं लेंगे। काश! सत्ता को लोगों की आवाज सुनने का सलीका भी होता तो दोनों देश आज की तुलना में अधिक बेहतर स्थिति में होते।

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