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27 सितम्बर विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष, गंगा यदि नहीं होगी तो-----?


सनातन संस्कृति अपने पवित्र तीर्थों और इन तोर्थों की सामासिक संस्कृति के कारण अनादि काल से प्रसिद्ध रही है। समस्त विश्व ने इस संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं अर्थात तन-मन की पवित्रता और इसकी अन्तर्दृष्टि को खुले मन से स्वीकार किया है। हमारे ये सभी पवित्र तीर्थ नदियों के किनारे बसे हैं। हमारी संस्कृति नदियों को जीवन-रेखायें मानती है। उन्हें माता के समान पूजनीय मानती है।

रिपोर्ट  - à¤‰à¤®à¤¾ घिल्डियाल श्रीनगर गढ़वाल

जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन एक यात्रा है। दिनों महीनों,वर्षों ,विभिन्न प्रसंगों, सन्दर्भों , सुख-दुःख , हार-जीत, आशा-निराशा की यात्रा। मिलने और बिछुड़ने की यात्रा। कुछ पाने और खोने की यात्रा। एक धुंध से दूसरी धुंध तक पहुँचने की यात्रा। इस यात्रा के मध्य भी कई प्रकार की यात्राएँ चलती हैं। जिसमें आत्मा की उन्नति और पवित्रता के लिये की गई यात्रा प्रमुख है। इस यात्रा को हमारी संस्कृति के वैज्ञानिकों अर्थात् ऋषियों-मुनियों ने तीर्थयात्रा का नाम दिया है। अर्थात् पवित्र तीर्थों की यात्रा ही तीर्थयात्रा है, जो हमें जन्म-मृत्यु से मुक्त कर देती है। सनातन संस्कृति अपने पवित्र तीर्थों और इन तोर्थों की सामासिक संस्कृति के कारण अनादि काल से प्रसिद्ध रही है। समस्त विश्व ने इस संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं अर्थात तन-मन की पवित्रता और इसकी अन्तर्दृष्टि को खुले मन से स्वीकार किया है। हमारे ये सभी पवित्र तीर्थ नदियों के किनारे बसे हैं। हमारी संस्कृति नदियों को जीवन-रेखायें मानती है। उन्हें माता के समान पूजनीय मानती है। प्रातःकाल नदियों को स्मरण करना हमारी दिनचर्या का प्रमुख अंग है।"गंगे च यमुने चैव -------" श्लोक प्रत्येक हिन्दू की जिह्वा पर रहता है। भारत की ही नहीं वरन् संसार की नदियों में भी गंगा नदी को परम पवित्र और मुक्तिदायनी माना जाता है। यह एकमात्र ऐसी नदी है,जिसके लिये राजा सगर की कई पीढ़ियों ने तपस्या की और हजारों वर्षों की तपस्या के बाद गंगा धरतो पर आईं।इनके प्रबल वेग को नियन्त्रित करने के लिये स्वयं शिव भगवान ने इन्हें अपने मस्तक पर स्थान दिया। गोमुख से लेकर गंगासागर तक सनातनी संस्कृति के हजारों तीर्थ इस नदी के किनारे बसे हैं। गंगा स्वयं एक तीर्थ है। भारत की कुल आबादी की लगभग 30 प्रतिशत जनता इस नदी के किनारे निवास करती है। परन्तु महाशोक है कि भोगवादी पर्यटन ने तीर्थयात्रा की मूल अवधारणा को नष्ट कर दिया है। तीर्थों में होटल संस्कृति पनप रही है।हमने तीर्थों को भोग-विलास का अड्डा बना दिया है। उनकी स्वच्छता और पवित्रता नष्ट कर दी है। अब तीर्थों में जो संस्कृति पनप रही है उसे महाविकृति का ही नाम दिया जा सकता है। उस पर कोढ़ में खाज की भाँति नदियों की अविरलता को बाँधों के द्वारा बाधित किया जा रहा है।आज भारत की कोई भी नदी ऐसी नहीं है,जिसे पर बाँध न बने हों ,परन्तु गंगा नदी की दुर्दशा सबसे अधिक हुई है। इस नदी पर वर्तमान में सैकड़ों बाँध बने हुये हैं। नदी निरन्तर मर रही है ,विकास के नाम पर सबसे अधिक विनाश इसी का हुआ है। विश्व में हमारी पहचान हमारी संस्कृति के कारण है।यह संस्कृति गंगा जैसी नदियों के किनारे ही पनपी है। डा0 शंकर काला के द्वारा स्थापित और संचालित ' विपरो ' (विनाशकारी पर्यटन रोको) संस्था गाँधीयन पर्यटन को बढ़ावा देकर संस्कृति बचाओ की दिशा में बहुत अच्छा कार्य कर रही है। गंगा की अविरलता को लेकर हरिद्वार में स्थित मातृसदन के संत शिवानन्दजी और उनके ब्रह्मचारीगण निरन्तर उपवास रूपी तपस्या कर रहे हैं। संत निगमानंद, स्वामी सानन्द, पद्मावती आदि संत निरन्तर गंगा की रक्षा के लिये उपवास रूपी तपस्या कर रहे।कुल मिला कर मातृसदन सात वर्ष से अधिक समय का उपवास कर चुका है। इस तपस्या में निगमानंद जी और सानन्द जी अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं। आत्मबोधानन्दजी और पद्मावतीजी क्रमशः एक सो चौरानवें और तीन महीने से अधिक की तपस्या कर चुके हैं। वर्तमान में आत्मबोधानन्दजी पुनः उपवास रूपी अनशन पर हैं। उन्हें लगभग चालीस दिन होने वाले हैं। वे तो अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं,परन्तु हम अपना कर्त्तव्य कब समझेंगे ,यह अवश्य विचारणीय विषय है। इतना तो अवश्य ही समझना होगा कि गंगा है तो हम है, गंगा यदि नहीं होगी तो-----?

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