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स्वामी श्रद्धानंद 99वां बलिदान दिवस


महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर आर्य समाज का कालान्तर में तीर्थ स्थापित करने वाले महात्मा मुंशीराम लाहौर से चलकर ज्वालापुर रेलवे स्टेशन पर अपने कुछ सहयोगियों के साथ उतरते हैं। वहां से बैलगाड़ी के माध्यम से वेद के मंत्र के अनुरूप गुरुकुल स्थापित करने के लिए तत्कालीन बिजनौर रजवाड़े के अधीन आने वाले उस भू-भाग में जाते हैं।

रिपोर्ट  - allnewsbharat

महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर आर्य समाज का कालान्तर में तीर्थ स्थापित करने वाले महात्मा मुंशीराम लाहौर से चलकर ज्वालापुर रेलवे स्टेशन पर अपने कुछ सहयोगियों के साथ उतरते हैं। वहां से बैलगाड़ी के माध्यम से वेद के मंत्र के अनुरूप गुरुकुल स्थापित करने के लिए तत्कालीन बिजनौर रजवाड़े के अधीन आने वाले उस भू-भाग में जाते हैं। जिस स्थान को आज पुण्यभूमि कांगड़ी गांव हरिद्वार से जाना जाता है। उस स्थान पर उतरते ही महात्मा मुंशीराम को एक बिजनौर विरासत के मुंशी श्री अमन जी मिलते हैं। मुंशी अमन जी महात्मा मुंशीराम जी से उनकी देशभक्ति और भारतीय वैदिक शिक्षा पद्धति से इतने प्रभावित होते हैं कि महात्मा जी को एक गुरुकुल स्थापित करने के लिए अपने विरासत की भूमि इस मध्य देने का प्रस्ताव रखते हैं। महात्मा मुंशीराम सहज इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए कि उनको पता था कि भूमि तो मिल गयी अब ऊपर की आकृति और इस सभी के लिए विद्यार्थी इस स्थान पर कैसे आयेंगे। किन्तु दृढ़ संकल्पी महात्मा मुंशीराम विचार करते है कि जब इतनी बड़ी भूमि मुझे मेरे इस कार्य हेतु मुंशी अमन जी ने दी है तो मैं भी तो मुंशीराम हूँ। मुझे भी अब अपना सब कुछ देना होगा। और इस संकल्प के साथ अपने बच्चों से बिना विचार विमर्श किए अपनी सर्वस्व सम्पत्ति बेचकर गुरुकुल के भवन निर्माण में लगा देते हैं। अपने बच्चों से क्षमा मांगते हैं और कहते है कि बच्चों मैंने तुम्हारे अधिकारों की सम्पत्ति तुम्हे बिना पूछे बेचकर इस गुरुकुल को समर्पित कर दी है। बच्चे उनको कहते हैं कि पिताजी आपने तो सिर्फ संपत्ति की बात कर रहे हैं। हम तो इस संकल्प के साथ स्वयं भी समर्पित हैं और इसी समर्पण भाव से महात्मा मुंशीराम के दोनों पुत्र हरीश चन्द्र व इन्द्र इस गुरुकुल के प्रथम विद्यार्थी के तौर पर प्रवेश लेते हैं। वह भी वहां जहां पर चारों तरपफ जंगली जानवरों व डाकूओं का भय हो। लेकिन अपने पिता के संकल्प के साथ खड़े होने के साहस ने आज उसी गुरुकुल को गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार का गौरव बना दिया है। यह वही स्थान है जहां पर आर्य प्रतिनिधि पंजाब के नाम से महात्मा मुंशीराम ने प्राप्त जमीनों को गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के वास्ते नामित कराया। यह वही स्थान है जहां पर उस क्षेत्रा का डाकू सुल्ताना डाका डालने हेतु आता है, वहां एक व्यक्ति लालटेन लेकर गुरुकुल में अध्ययन हेतु आए छात्रों की जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु रात्रिकालीन पहरा दे रहा होता है। डाकू रूकता है पूछता है कि तुम कौन हो? महात्मा मुंशी बताते है कि मैं तो अपने देश के भावी भविष्य की रक्षा/सुरक्षा कर रहा हूँ। डाकू सारे प्रकरण को समझने के बाद महात्मा मुंशीराम को चांदी की अशर्फी देने की पेशकश करता है। किन्तु स्वामी जी यह कहते हुए ठुकरा देते है कि मैं लूटी हुई कोई भी वस्तु इस गुरुकुल में नहीं लगाऊंगा, यदि कुछ देना है तो मेहनत करके दो

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